ली मिन-युंग ताइवान के प्रमुख साहित्यकारों में शुमार हैं। वे कवि, आलोचक, निबन्धकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उनके कई कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कविताओं का अंग्रेज़ी सहित अन्य भाषाओं में अनुवाद होता रहा है। भारतीय भाषाओं में उनका अनुवाद हिन्दी और पंजाबी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है। वे प्रमुख कविता केंद्रित पत्रिका ‘ली पोएट्री’ के सम्पादक रह चुके हैं। ली मिन-युंग ‘नेशनल आर्ट्स अवार्ड इन लिट्रेचर’, ‘वू युंग-फू’ आलोचना सम्मान, ‘वू चो लिउ’ कविता सम्मान एवं ‘लाई हो’ साहित्य सम्मान सहित अन्य पुरस्कारों द्वारा नवाज़े जा चुके हैं।
ली मिन-युंग के इस काव्य संग्रह ‘हक़ीक़त के बीच दरार’ का अनुवाद युवा रचनाकार देवेश पथ सारिया ने किया है, जो मूलतः अलवर जिले के राजगढ़ निवासी हैं और खगोल-शास्त्र में पीएचडी करने के पश्चात अगस्त 2015 से ताइवान में पोस्टडॉक्ट्रल फ़ेलो के रूप में कार्यरत हैं। देवेश प्राथमिक तौर पर कवि हैं। कथेतर गद्य लेखन और कविताओं के अनुवाद में भी उनकी रुचि देखी जा सकती है। देश की लगभग सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं एवं वेब माध्यमों पर उनकी रचनाएँ प्रकाशित एवं प्रसारित होती रहती हैं।
किताब: ‘हक़ीक़त के बीच दरार’
कवि: ली मिन-युंग
अनुवादक: देवेश पथ सारिया
प्रकाशक: कलमकार मंच
समीक्षा: जितेंद्र श्रीवास्तव
भारत के स्वाधीनता वर्ष में पैदा हुए ताइवानी कवि ली मिन-युंग की कविताओं में एक अपनापन है। यह अपनापन उनकी गहरी लोक संपृक्ति से आविर्भूत हुआ है। इस प्रकार का अपनापन प्रत्येक उस कवि की कविता में मिलता है जिसकी जड़ें अपनी मिट्टी में होती हैं। वायवीयता का विश्व रचने वाले कवि अंततः वायवीय ही रह जाते हैं। कविता पृथ्वी के किसी भी हिस्से की हो, यदि उसमें मानुष राग है तो वह भौगोलिक और भाषिक परिधि को लाँघ जाती है। अपरिचित-सा कवि नाम सहोदर-सा लगने लगता है। यह सरोकारों का डीएनए है, जिसकी जाँच के लिए किसी प्रयोगशाला में जाने की ज़रूरत नहीं होती। कविता और समस्त कलाओं का अपना एक भिन्न वायुमंडल होता है। राजनीति का कार्बन-डाइऑक्साइड उसे विषाक्त बनाने की अनवरत कोशिश करता रहता है लेकिन सदियाँ बीत गईं, उस वायुमंडल का आक्सीजन चिरंजीवी है। यह अकारण नहीं है कि युवा कवि देवेश पथ सारिया के प्राणवान अनुवाद में जब ली मिन-युंग की कविताएँ मुझे मिलीं तो मैं अभिभूत होकर इन्हें कई बार पढ़ गया। लगा जैसे अपनी ही भाषा के किसी ऐसे समर्थ कवि को पढ़ रहा हूँ जो मेरे ही देश के किसी अन्य भौगोलिक क्षेत्र में रहता है। इन कविताओं ने वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा को पुनः परिपुष्ट किया। वैसे भी अनुवाद, साहित्य का एक वैश्विक कुटुम्ब सृजित करता है। इस संग्रह की पहली कविता ‘शताब्दियों के मिलन बिंदु पर प्रार्थना’ अपने तीन हिस्सों में तीन बिम्बों का सृजन करती है। पहला बिम्ब देखें—
युद्ध सुपुर्द है इतिहास को
विध्वंस याद को
बूँदाबाँदी में घुल गए हैं
प्राकृतिक आपदा से मिले
घाव और आँसू
इस बिम्ब को व्याख्यायित करने की आवश्यकता नहीं है। इसे महसूस किया जाना चाहिए। इस कविता का दूसरा बिम्ब देखें—
शताब्दियों के मध्य पुल की भाँति
एक इंद्रधनुष खिलता है
समय के समाप्ति बिंदु और आरम्भ पर
बाँटता हुआ भूतकाल भविष्य को
अब शताब्दी की सांध्य बेला है
रात घिरने के बाद
तारे अंधकार में रास्ता दिखाएँगे
इस बिम्ब में एक निरन्तर प्रवहमान ऐतिहासिक चेतना है। यह कवि अपने राष्ट्र को वर्णनातीत प्रेम करता है, इसलिए तीसरा बिम्ब मातृभूमि का अपूर्व सुन्दर सहेजे हुए है—
उगते हुए सूरज की रोशनी
क्षितिज पर चमकती है
सपने बुनता फ़ॉरमोसा
समुद्र के आलिंगन में रहता है
क्षितिज के ऊपर
उसके वासी, एक सुर में पुकारते हैं
ताइवान।
निश्चय ही देवेश ने इस हिस्से में फ़ॉरमोसा की जगह आर्यावर्त और ताइवान की जगह भारत लिखकर पढ़ा होगा। यह कविता का वह वैश्विक लोकतंत्र है जो अपने पाठक को उसकी जड़ों की याद दिलाता रहता है। नहीं भूलना चाहिए कि प्रत्येक मनुष्य के मन का भी एक ‘लोकेल’ होता है और उस पर कभी धूल नहीं जमती। ली मिन-युंग की यह साधारण-सी दिखती कविता अपनी अर्थव्याप्ति में असाधारण है। अपनी मातृभूमि को नमन करने वाला यह कवि वैश्विक कुटुम्ब का स्वप्न इस प्रकार व्यक्त करता है—
कोई सरहद नहीं होती
नीले सागर से घिरे
एक द्वीप की
…
…
घनी जालियाँ
लगा देती हैं विराम
उम्मीदों पर
मुक्त उड़ान की।
ऐसी चेतना किसी कवि-कलाकार के मन में ही हो सकती है। इंच-इंच पर अपना दावा करने वाले मुक्त-मन के इस सौन्दर्य को कभी नहीं समझ पाएँगे। अपनी एक कविता ‘औरतें’ में युंग ने स्त्री जीवन के दो रूपों को जिस ढंग से रखा है, वह इस कवि की क्षमता का पता देने के लिए पर्याप्त है। पहला रूप—
कानों में सीपियाँ पहनी हुईं
ये औरतें
समुद्र की याद दिलाती हैं
इनकी आँखों में उमगती लहरें हैं
दुनिया भर को ख़ुद में
समा लेने को तैयार।
और दूसरा रूप—
कुछ दूसरी औरतें हैं
जिनकी छाती पर
सलीब लटकी है
जो बताती है
कि वे रहना चाहेंगी
पवित्र अक्षत योनि।
इस कवि की कविताएँ बताती हैं कि इस कवि के वहाँ स्त्री जीवन को समझने की एक निरंतर कोशिश है।
कभी-कभी सोचता हूँ कि यदि अनुवाद की सुविधा न होती तो संसार कितना निर्धन लगता! वह अनुवाद ही है जिसने भूमण्डलीकृत विश्व ग्राम के समानांतर एक सांस्कृतिक विश्व ग्राम की रचना की है। भाषा और साहित्य का एक वैश्विक परिवार निर्मित किया है। आप किसी देश गए हों या नहीं, अनुवाद के ज़रिए वहाँ का साहित्य आपकी अपनी भाषा में छपकर आपके सिरहाने आ जाता है। कह सकते हैं कि इस प्रक्रिया में उस देश और समाज से आपकी वास्तविक मुलाक़ात हो जाती है। भारत के सन्दर्भ में अनुवाद ने राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने में बड़ी भूमिका निभायी है। यदि अनुवाद न होता तो इन पंक्तियों का लेखक दक्षिण या पूर्वोत्तर के भक्त कवियों और उनके दूसरे साहित्य को कभी भी नहीं पढ़ पाता। बांग्ला, ओड़िया, गुजराती, मराठी, पंजाबी आदि के साहित्य को कैसे पढ़ता! यह याद रखना चाहिए कि अनुवाद कोई सीमा नहीं मानता। कबीर याद आते हैं—
हद चले सो मानवा बेहद चले सो साधु
हद बेहद दोनों तजे ताकर मता अगाध।
इस दोहे के मर्म को अनुवाद के सन्दर्भ में देखने पर नया अर्थ खुलता है। अनुवाद हद और बेहद—दोनों को तजकर आत्मीयता का विस्तार करता है। जिस प्रकार सनातन धर्म में आत्मा और शरीर की अवधारणा है, उसी प्रकार यदि ग़ौर करें तो अनुवाद में शरीर बदल जाता है लेकिन आत्मा चिरंजीवी रहती है। कहने की आवश्यकता नहीं कि अनुवाद में साहित्य को नवजीवन मिलता है। वह अनुवाद ही है जिसके कारण विश्व के महान दार्शनिकों के विचार हम तक पहुँच पाए अन्यथा वे उन दार्शनिकों की मातृभाषाओं में ही रह जाते। हरिवंशराय बच्चन ने जब ख़ैयाम की रुबाइयों का अनुवाद किया तो वे रुबाइयाँ भारत की आत्मा में रच बस गईं। कोई अपरिचय नहीं रह गया। भाषा की दीवारें गिर गईं। मैं कभी ताइवान नहीं गया लेकिन देवेश के अनुवाद ने सिर्फ़ एक कवि की कुछ कविताओं के माध्यम से ही मुझे ताइवान से मिलवा दिया। इस कवि के पास एक नितांत समकालीन चित्त है। यदि ऐसा नहीं होता तो वह ‘रविवार का संगीत’ शीर्षक कविता में इन पंक्तियों को नहीं लिख पाता—
फ़रिश्ते विलीन हो चुके हैं
वे मनुष्यों ने गढ़े थे
वे प्रवेश कर रहे हैं
चियान्ति नाम के एक कॉफ़ी शॉप में
इटालियन कॉफ़ी का एक कप पीने को
वहाँ विवाल्डी के फ़ोर सीजंस का
‘समर’ बज रहा है।
इस कवि के काव्य-संसार में हृदय और मस्तिष्क—दोनों को एक साथ प्रभावित करने वाले बिम्बों की भरमार है। मन बार-बार रुकता है और मस्तिष्क आश्चर्य से भर उठता है। अपनी एक कविता में वह कहता है—रेलमार्ग बनाने की ख़ातिर/ हमने पेड़ काट दिए एक महफ़ूज़ द्वीप के। ये पंक्तियाँ विकास और विनाश के द्वन्द्व को मार्मिक ढंग से सामने रखती हैं। नया मिल रहा है, यह सुखद है लेकिन उसके लिए जो खो रहा है उसकी चिंता कौन करेगा! कवियों की ‘सीकरी’ से पटरी इसीलिए नहीं बैठती क्योंकि वे विनाश पर पर्दा नहीं डालते। यह कवि एक अन्य कविता में कहता है—
यदि तुम पूछो
कैसा दिखता है वर्तमान ताइवान द्वीप का
मैं तुम्हें बताऊँगा
ताइवान की आत्मा को
गला रहा है
शक्ति सम्पन्नों का भ्रष्टाचार।
सच्चा कवि वही होता है जो अपने समय को बिना किसी विशेषण के पूरी तीक्ष्णता से दर्ज करता है। नहीं भूलना चाहिए कि अधिकतर मामलों में विशेषण सत्य की धार को कुंद कर देते हैं। अभिधा को उत्तम काव्य इसीलिए माना गया है।
पिछले कुछ दशकों से पूरी दुनिया में मनुष्यता संकट का सामना कर रही है। इस कोरोना-काल में स्थिति चरम पर पहुँच गई है। ये पंक्तियाँ ली मिन-युंग के देश और शहर का ही सत्य नहीं बताती हैं बल्कि यह एक वैश्विक सत्य है—
इस शहर में
सहानुभूति का अभाव गहराता जा रहा है
अलगाव बढ़ता जाता है।
इतना ही नहीं, यह विडम्बना भी लगभग वैश्विक है—
हम अधिशासी पार्टी के आदेश पर सिर हिलाते हैं
सोच-विचार की सामर्थ्य त्याग
हम सोते हैं बुरे सपनों के बीच, निश्चिन्त।
सपनों के बिना कोई कवि और कविता सम्भव नहीं है। स्वप्न का घनत्व ही किसी कवि को विशेष बनाता है। कवि का काम सत्ताधीशों द्वारा देखे गए सपनों के मूल्यांकन के साथ ही मनुष्यधर्मी सपनों का सृजन भी है और कविता का एक काम स्वप्न देखने की तमीज़ पैदा करना भी है। इस कवि का स्वप्न देखिए—
मुझे पूछो तो
बेहतर दृश्य यह होगा
कि सूरज चढ़ने से पहले
एक नवजात को हौले से
झूला झुलाती हो कोई नर्स।
यह कवि प्रेम डगर की दूरी नापने का हौसला रखता है लेकिन ‘यातायात चिह्न’ जैसी यथार्थवादी कविता भी लिखता है। यह कविता इस समय पूरी दुनिया के लिए अचानक प्रासंगिक हो गई है। इसकी कुछ पंक्तियाँ देखें—
जीवितों को लगता है
कि लम्बी सड़क पर
कोई उनका पीछा कर रहा है
मेरे पाँवों से ख़ून रिस रहा है
छोड़ता हुआ
एक लम्बी राह पर निशान
आगे खड़ी है मृत्यु
वहाँ न प्रार्थना काम आएगी
न बचा पाएगा उससे कोई।
वैसे इस कवि का मूल स्वर प्रेम और साहचर्य का है। वह मुहब्बत का आकाँक्षी है। नाउम्मीदी के बीच उम्मीद के सूत तलाशने की कोशिश करता रहता है। ताइवान के लोगों का मुक्ति-संघर्ष उसकी कविता की आत्मा है। यह अकारण नहीं है कि इस कवि की कविताओं में घावों के अनगिनत निशान हैं और साथ में गहरी जिजीविषा भी। यह कवि घायल दिलों के उपचार की बात करता है। वह साम्राज्यवादियों को सम्बोधित करते हुए कहता है—
तुम नहीं जकड़ सके
मेरे हाथ में खिंची
प्यार की लकीर को।
कहने की आवश्यकता नहीं कि प्यार पर अटूट विश्वास रखने वाले इस कवि का हिन्दी संसार में भरपूर स्वागत होगा। आज दुनिया को अनुवादों की बहुत ज़रूरत है। जिस प्रकार जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं होती, उसी प्रकार अनुवाद के बिना सामासिक सांस्कृतिक जीवन की कल्पना सम्भव नहीं है। इस सुंदर अनुवाद के लिए युवा कवि देवेश पथ सारिया को भी बधाई!
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'अलगोज़े की धुन पर' : प्रेम के परिपक्व रंगों की कहानियाँ