ऐसे ही नहीं लिखे
जाते क्रान्ति के इतिहास
कहते हैं मुझे मेरे ही शब्द…
शब्द जो गिरे पड़े मिलते हैं
मुझे ज़मीन पर हर सुबह
जैसे माचिस की तीलियाँ
गिर जाती हैं डिब्बी से
कहते हैं मुझसे
‘जी’ ली हमने कविता
जो कल तुमने लिखी थी
‘जी’ ली हमने वो रात
जिसमें प्रेयसी की
आँखों से देखा था
तुमने आधा चाँद
‘जी’ ली हमने वो रात
जिसमें आईं थी
कई आँधियाँ
‘जी’ ली..

एक रात ही तो थी
कहते हैं मुझसे
मेरी ही कविता के शब्द
‘जो बीत गयी
सो बीत गयी
उसे क्यों दोहराते हो
क्यों कंधे पे
झोली लेके फिरते हो
क्या पाते हो’
‘जो बीत गयी
सो बीत गयी
एक रात ही तो थी’
अब उठो
तुम खुद लेके
फिरते हो
एक हाथ में
काग़ज़ का आसमान
और एक हाथ
में उम्मीद की कलम
का सूरज
अब उठो
और लिखो नया इतिहास
और कर दो उजाला..
ऐसे नहीं लिखे जाते
क्रान्ति के इतिहास
हर दिन एक
नया आसमान
और एक नया सूरज
लेके निकलना पड़ता है

आज भी जाना होगा
उसी उम्मीद की
पूर्व निर्धारित यात्रा पर
निकलना होगा तुम्हें
आज भी…

उठो…