मेरे शहर से बड़े शहर की तरफ हाइवे जाता है। हाइवे पे जाने वाले, आने वालों से अलग रस्तों पे चलते हैं। ये कुछ यूँ ही है कि जैसे हम दोनों एक दूसरे की तरफ बढ़े तो थे पर बीच में हमारे डिवाइडर था। समाज के एथिक्स का डिवाइडर, हैसियत का डिवाइडर, जाति का डिवाइडर, धर्म का डिवाइडर।

यदि हम दोनों को मिलना है तो किसी एक को हममें से रुकना होगा और दूसरे को यू टर्न लेकर आना होगा। जीवन के इस हाइवे में यदि रुकेंगे तो कोई ठोक कर अपनी गति में अपने गंतव्य को निकल जायेगा। ठोकने वाले को किसी से मिलना नहीं है। वो अपने अधूरेपन में पूर्ण होगा।

शायद ईश्वर को ही पूर्ण होने का अधिकार है। या फिर ईश्वर इतना द्वेष रखता है कि पूर्ण को समाहित नहीं कर सकता वो। यथार्थ में पूर्णता एक ख़्वाब है। प्रेमी यदि एक हो जाएं तो वे पूर्ण हो जाते हैं। फिर उन्हें किसी ईश की आवश्यकता नहीं होती, किसी समाज की आवश्यकता नहीं होती, किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं होती।

प्रेमी पूर्ण होने के लिए एक दूसरे के प्रति हाइवे पे तेज़ रफ़्तार में बढ़ते हैं, पर उन्हें अधूरा छोड़ देता है दैवीय डिवाइडर और रिस रिस के उनमें से थोड़ी जान निकलती जाती है जब तक वो उस पूर्ण में समाहित न हो जायें।