मैं चाहता हूँ
इस धरती को तुम
थोड़ा-थोड़ा कर ही सही
समझना तो शुरू करो।
तुम खुद अपनी आँखों से देखो
किस तरह खण्डहर में तब्दील हो गये हैं
इतिहास के सामने
और पथराने लगी है हवा
किसी बुनियाद के बिना
भटकाती – बिर्राती हैवानी चीख में।
तुम खुद देखो
इन्सानों को कितनी तेजी से
फालतू चीज़ों और कचरे के ढेर में फेंककर
बढ़ गये हैं हमलावर
ख़ूंख़ार जानवरों से कहीं ज़्यादा ख़तरनाक
हथियार हैं उनके पास
घूमता चला जा रहा है वक़्त का आईना
इस रोशनी और अँधेरे में अब
‘कोई तो आकर बचा ले’ जैसी पुकार
एक बार नहीं, हज़ार बार
जमकर हो गयी है- हिमशिला।
कोई नहीं जानता
क्या लिखा है
भविष्य की कोख में पल रही धरती के लिलार पर,
सारी दीवारें एक-एक कर ढह रही हैं
आसमान के आखिरी छोर तक फैली
अपनी आज़ादी के साथ क्या करे-
यह तय नहीं कर पा रहा है आदमी
धूल और कोहरे के बादल
लीलते जा रहे हैं आदर्श और विश्वास।
वक़्त का कन्धा छुआ नहीं
कि तुम समझ जाओगे
इस जानी-पहचानी धरती का एक-एक पल
पथराये सूरज की तरफ बढ़ता
तिल-तिल कर
होता जा रहा है विलीन…