नाक़ूस से ग़रज़ है न मतलब अज़ाँ से है
मुझ को अगर है इश्क़ तो हिन्दोस्ताँ से है
तहज़ीब-ए-हिन्द का नहीं चश्मा अगर अज़ल
ये मौज-ए-रंग-रंग फिर आई कहाँ से है
ज़र्रे में गर तड़प है तो इस अर्ज़-ए-पाक से
सूरज में रौशनी है तो इस आसमाँ से है
है इस के दम से गर्मी-ए-हंगामा-ए-जहाँ
मग़रिब की सारी रौनक़ इसी इक दुकाँ से है