(परम पावन पूज्यपाद नामवराचार्य के श्री चरणों में)

इन औरतों ने तो मार मुसीबत खड़ी कर रखी है। प्राण ले लिए। न जाने कहाँ-कहाँ से चींटियों की तरह निकलती चली आ रही हैं। चाहती क्या हैं आख़िर ये…? हम नदी-नालों में डूब मरें या फाँसियाँ लगाकर मर जाएँ? क्यों मर जाएँ? सिर्फ़ इसलिए कि आज तुम हमारे सिर पर नाचने लगी हो? कोई हद होती है बर्दाश्त की भी। हम तो सोचते थे कि चलो, इन्हें भी थोड़ी उछल-कूद कर लेने दो। भीतर का ग़ुबार निकल जाएगा तो अपने आप ठण्डी हो जाएँगी! हम गम्भीर लोग हैं, इस तरह इनके मुँह लगेंगे तो अपना ही नुक़सान करेंगे, ‘छिमा बड़न को चाहिए, छोटन को अपराध’, मगर नहीं साहब, इस तरह मान जाएँ तो औरतें ही किस बात की! मुँह लगाई डोमनी गावै ताल-बेताल… हम तो कहते हैं कि भागवानो, जो तुम्हें लेना-लिवाना है, ले लो और जान छोड़ो। हमारे प्राण मत खाओ। यह चौबीसों घण्टों का रोना बन्द करो कि हम तुम्हें यह नहीं दे रहे, वह नहीं दे रहे – या हमने तुम्हें क्या-क्या नहीं दिया, किस तरह सताया, मारा …अरे, ग़ुस्से में या किसी और मतलब से हो गया होगा कुछ उल्टा-सीधा, अब इसका यह मतलब तो नहीं कि तुम हमेशा हमें सूली पर ही लटकाए रहो। किस-किस की सफ़ाई देते रहें और क्यों देते रहें? जब तुम हमारे कहने में नहीं रहोगी, हर वक़्त मनमानी करोगी तो क्या तुम्हारा अचार डालेंगे? हम तो तुम्हारी वो ठुकाई करेंगे कि सारा नारी-फारीवाद भूल जाओगी… जब तक चुप हैं तभी तक तुम्हारा सारा खेल-तमाशा चल रहा है, जब अपनी-सी पर आ जाएँगे तो ये सारी रें-टें भूल जाओगी। बोटी-बोटी काट डालेंगे।

…सच कहा है बड़े-बूढ़ों ने कि ‘दरी और दारा को झाड़ते रहो’, तभी ठीक रहती हैं।

यह बराबरी-वराबरी का लफड़ा क्या है? प्रकृति में कहीं कोई बराबरी होती है? शेर-कुत्ता, गधा, घोड़ा क्या सब बराबर हो जाएँगे? न पाँचों उँगलियाँ होती हैं, न दो सगे भाई। प्रकृति के विरुद्ध जाओगी तो कुछ हाथ नहीं आएगा, विनाशकाले विपरीत बुद्धि – अपना ही नाश करोगी चण्डालिनो! मालिक और नौकर हमेशा से होते आए हैं – आज कोई नयी बात नहीं है। तुम चाहे कितना भी आसमान सिर पर उठा लो, जो अटल है, वह अटल रहेगा।

अब बोलो, हज़ारों सालों का इतिहास निकालकर बैठी हैं कि हमने कैसे उन्हें अपना ग़ुलाम बनाया, कैसे उनकी नस-नस में यह भाव भर दिया कि रात-दिन हमारी सेवा नहीं करेंगी, हमारे इशारों पर उठेंगी-बैठेंगी नहीं, हमें अपना स्वामी, भगवान और मालिक नहीं मानेंगी तो उनका जीना, साँस लेना व्यर्थ है, नरक में भी उन्हें जगह नहीं मिलेगी और सड़-सड़ कर मरेंगी। साली कहती हैं कि हमने उन्हें जानवरों की तरह मारा, कूटा और कुचला है, उनकी हत्याएँ की हैं, अंग-भंग किए हैं और बिना अपराध के भीषण यन्त्रणाएँ दी है। घर-घर को यातना-घर बना दिया है। हाँ, हाँ ये सब किया है या मान लो आज भी कर रहे हैं तो क्या प्यार नहीं किया हमने, तुम्हें नाज़ुक फूलों की तरह हथेलियों पर नहीं रखा, तुम्हारे लिए महल-अटारे नहीं बनवाए, राजमहल और ताजमहल नहीं खड़े किए? दुनिया-भर के हीरे-जवाहरात नहीं लुटाए, एक से एक क़ीमती गहने-कपड़े तुम्हारे ऊपर निछावर नहीं किए, कविताएँ-दर्शन नहीं लिखे! वो सब करने कोई दूसरा आया था? ऐसी अहसानफ़रामोशी तो मत करो कमबख़्तो… अत्याचारों की लम्बी सूची तो हमारे मुँह पर मारोगी – ज़रा उन बातों को भी तो गिनाओ जो हमने तुम्हारे लिए की हैं, हमने तुम्हारे लिए नदियाँ, समुन्दर लाँघे, पहाड़ों पर चढ़े, रेगिस्तानों में भटके और सारे ज़मीन-आसमान नाप डाले, सो कुछ हुआ ही नहीं? इस बेहयाई पर अगर आदमी ग़ुस्से से तुम्हारा सिर न फोड़ दे तो क्या आरती उतारे? और सच बताना, क्या हमने तुम्हारी आरतियाँ नहीं उतारीं? भजन और कीर्तन नहीं किए? आज भी जो लाखों लोग हज़ारों मील की धूल फाँकते देवियों-भगवतियों के दर्शनों को पहुँचते हैं सो उस सबको भी बेकार कर देंगी? वो औरतें नहीं हैं? होंगी देवियाँ, जगज्जनियाँ जिनके लिए होंगी – हैं तो औरतें ही।

बताओ, क्या नहीं किया हमने तुम्हारे लिए और आज तुम कहती हो हमने तुम्हारा सिर्फ़ इस्तेमाल किया है। हाँ, हाँ किया है इस्तेमाल, सम्बन्धों का तो मतलब ही है कि दोनों पक्ष एक-दूसरे का भावनात्मक या भौतिक इस्तेमाल करे, चाहो तो कह लो कि एक-दूसरे को बेवक़ूफ़ बनाकर अपना काम निकालते हैं। हमी क्या, तुम भी हमारा इस्तेमाल करती हो : पहले छोटी बच्ची बनकर हमें मोहपाश में बाँधती हो, फिर रूप-जाल में हमें अंधा करती हो, दुनिया-भर के नाच-नचाती हो, न जाने किस-किस से लड़वाती और मेल कराती हो – फिर बैठकर अपने बच्चे पलवाने लगती हो। आदमी गधे की तरह दिन-रात मारा-मारा फिरता है, ख़ून-पसीना एक करता है और तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के लिए दाना-पानी लाता है, घर-मकान बनाता है, आने वाले दिनों का इंतज़ाम करता है, अपनी सारी ज़िन्दगी तुम्हारे लिए हलकान कर देता है और तुम? तुम मुर्ग़ी महारानी की तरह अपने डैने फैलाकर बच्चे को समेटे बैठी-बैठी गुटर-गुटर करती रहती हो। एक उल्लू का पट्ठा है जो दुनिया-जहान एक करके तुम्हारी सुख-सुविधा का इंतज़ाम करेगा। बदले में उसे मिलता क्या है? सिर्फ़ दो वक़्त की रोटी, थोड़ा-सा आराम, तुम्हारा लाड़-प्यार और अगले दिन फिर गधे की तरह खटने-मरने की तैयारी। तुम उसके दिमाग़ कूट-कूटकर भरे रखती हो कि जो कुछ भी वह कर रहा है वह तो सिर्फ़ अपने लिए या अपने बच्चों के लिए है, उस बेचारी का क्या है, वह तो उसके बच्चों की आया है, उसका वंश चलाने की मशीन है। यों ही एक दिन मर-खप जाएगी। हम तो छाती ठोककर यह भी नहीं कह सकते कि यह बच्चे हमारे ही हैं। बचपन से लेकर बुढ़ापे तक आदमी कब तुम्हारे जाल से छूट पाता है? कोई भी मुसीबत आती है तो ‘हाय-माँ’ कहकर तुम्हें गुहारता है। कहो, आदमी सारी ज़िन्दगी तुम्हारे ऑब्सेशन को ही ओढ़ता-बिछाता है। सौ में से एकाध ऐसे भी होंगे जो इस चौबीस घण्टे की खिच-खिच और ग़ुलामगीरी से छूट भागते हैं, या मर-मरा जाते हैं। तब तुम छाती-माथा कूटकर दुनिया सिर पर उठा लेती हो, ऐसा दिखाती हो जैसे देश के लिए शहीद हो गई हो, मगर भीतर-भीतर इस सन्तोष से सुखी होती हो कि जो करना-कराना था सो करा लिया, अब रहे न रहे क्या फ़र्क़ पड़ता है, वैसे भी किसी काम का नहीं रह गया था। अफ़सोस तुम्हें सिर्फ़ इस बात का होता है कि एक सीखा-पढ़ाया पालतू हाथ से निकल गया। अब बोलो, इस्तेमाल तुम करती हो या हम…? सच बात तो यह है कि हम ज़िन्दगी-भर तुमसे ही इस्तेमाल होते रहते हैं, सिर्फ़ इसलिए कि तुम्हारे पास एक ‘कंट’ है और हम कभी-कभी उसकी ज़रूरत के लिए पागल हो जाते हैं, मगर ख़ुद ही सोचो, कितनी बड़ी क़ीमत वसूलती हो तुम अपने शरीर के उस हिस्से की? उसकी सारी ज़िन्दगी चूस डालती हो… और भाव ऐसा, मानो हम ही तुम्हारी ज़िन्दगी पीसे डाल रहे हैं… तुम्हें खाए-चबाए डाल रहे हैं। दरअसल तुम हमारे भीतर उस अपराध-बोध को जिलाए रखती हो कि हम तानाशाह हैं, अत्याचारी और शोषक हैं… जबकि बात इतनी है कि हम मूर्ख और गधे हैं, जब तक इस सच्चाई को समझ पाते हैं तब तक बहुत देर हो चुकती है कि दुनिया चलाए रखने के लिए प्रकृति से मिली-भगत करके तुम हमें बैलों की तरह हाँके-जोते रही हो… अरे यह तो सोचो राक्षसियो, कि हम नहीं होते तो तुम्हारा क्या होता? पड़ी रहती बंजर धरती तरह – एक तिनका नहीं होता कहीं…

इस पर भी तुम कहती हो कि यह दुनिया पुरुषों की है, वही शासक है, वही पोषक है। वाह-वाह, क्या दूर की कौड़ी लायी हो। कोई विश्वास करेगा इस पर। सिर्फ़ इसलिए हम अत्याचारी शोषक और राक्षस हैं कि हमें बैल जैसा शरीर मिल गया है? ग़ौर से देखो तो सही, भीतर से चूहे हैं चूहे – डरे, सहमे, सिकड़े हुए… सब मिलाकर कुत्ते, सूअर, सियार… दया करो महारानियो, हम पर दया करो… हम तुम्हारी शरण में हैं माताओ, बहनो, देवियो। मगर तुम्हें? हमारा विश्वास है कहाँ, शक और शुबहा तो तुम्हारी मूल फ़ितरत है। इस ख़ूबसूरत, मोहक, मासूम चेहरे के पीछे कैसी तिकड़मी, ख़ूँख़ार सर्पिणी छिपी है यह तुम नहीं, हम जानते हैं। वेदों में कहा कि तुम ‘वृक् हृदय’ (भेड़िए के हृदयवाली) प्राणी हो… तुम तो कहोगी कि बेचारगी का यह हमारा सारा रोना-पीटना, हाय-हाय करना भी हमारी एक चाल है ताकि तुम्हारे भीतर करुणा और दया जगाकर हम फिर मौक़ा पाते ही शेर हो जाएँ… यानी यह हमारा विलाप नहीं, नाटक है… हा, हंत, हमारा दुर्भाग्य कि न तुम्हें छोड़े बनता है, न अपनाते…

अच्छा, तुम कहती हो कि जब हमने तुम्हें वेश्या बनाया, नगर-वधू का दर्जा दिया, कोठों पर बैठाया, कॉलगर्ल के पेशे में डाला या अपराध और कुफ़्र की दुनिया का हिस्सा बनाया तो सामूहिक उपभोग और उपयोग के लिए तुम्हें सुरक्षित कर लिया। जैसे आज जन-सुविधाओं की ज़रूरत है ताकि घर-बार से दूर थका-मांदा आदमी घड़ी-दो-बड़ी तरो-ताज़ा होकर अगली यात्राओं पर निकल सके या घर-बार से भागकर चैन-शान्ति पा सके, यह भी सही है कि जब चीज़ इस्तेमाल लायक़ नहीं रहती तो फेंक-फाँककर जान छुड़ायी जाती है। दुनिया-भर का कूड़ा-कबाड़ा आदमी कहाँ तक जमा करेगा। इसमें ग़लत क्या है? अब यह कहना तुम्हारी ज़्यादती है कि पहले तो हम घेर-मारकर तुम्हें सार्वजनिक-उपभोग की चीज़ बनाते हैं, फिर मरने के लिए छोड़ देते हैं। देखो बुरा मत मानो, उपयोग का तर्क तो यही है, चाहे मशीन हो या जानवर जब तक काम दे तब तक सिर आँखों पर, वरना कबाड़ी या कसाई बाज़ार तो हैं ही…

अब तुम आरोप लगाती हो कि हमने देवी बनाकर भी तुम्हारा इस्तेमाल ही किया है ताकि अपने भीतर शान्ति, शक्ति और आस्था का बल पा सकें और उससे भी बड़ी बात कि तुम्हारे ऊपर होने या किए जाने वाले तथाकथित अत्याचारों का मानसिक और आध्यात्मिक प्रायश्चित कर सकें। इसका मतलब तो यह हुआ कि हम जो तुम्हें आद्याशक्ति, प्रज्ञा पारमिता, सर्वशक्तिमान दुर्गा-पार्वती कहकर पूजते हैं, दुनिया-भर की सप्तशतियाँ, स्रोत और स्तवन लिखते हैं, प्रार्थनाएँ और कविता करते हैं, सौन्दर्य-शास्त्र और शृंगार काव्य रचते हैं, वैष्णो देवी, कामाक्षा या मीनाक्षी मन्दिरों में तुम्हारी प्रतिष्ठा करके सालोंसाल मेले लगाते हैं, नाचते-गाते हैं, इनके सामने रोते, गिड़गिड़ाते हैं, चरणों में लोटकर दया की भीख माँगते हैं, कृपा करो की याचनाएँ करते हैं – सो वह सब भी हमारी चाल है कि तुमसे शक्ति-सिद्धि लेकर तुम्हें और मज़बूती से बाँधे रख सकें? हमारी सारी श्रद्धा-भक्ति को जब तुम यह कहकर वल्गराइज़ करती हो या इसका कचूमर निकालती हो तो सिर पीट लेने को मन करता है कि भावनाओं में रहने वाली अमूर्त या साक्षात पत्थर की देवियाँ हैं सो इनके सामने रोओ या छाती पीटो, इनसे कृपा कराओ या असुरों-राक्षसों को मरवाओ, इनके साथ आध्यात्मिक सम्भोग करो या योनि-अनुष्ठान करो, क्या फ़र्क़ पड़ता है? आरोप है कि हमारी ये सब सामूहिक, सामुदायिक काल्पनिक दुनिया है – इनमें चाहे जैसी उछल-कूद करते रहो, स्त्रियों की स्थिति तो जहाँ, जैसी है वैसी ही रहेगी, ये सब हमारे आध्यात्मिक, मानसिक और आधिभौतिक वाक्-जाल हैं और पुरुष-वर्चस्व की रणनीतियाँ हैं, इन्हें हम महान संस्कृति, परम्परा, भारतीयता और राष्ट्रीयता या न जाने किन-किन नामों से गौरवान्वित करते हैं… यानी कि अपने को तुच्छ, अज्ञानी और हीन दिखाए रखकर करुणा, वात्सल्य और मातृत्व वसूलने का निर्मम षड्यन्त्र।

अरे, इस विकृत और कुत्सित तरीक़े से सोचने की बजाय यह समझने में क्यों तुम्हारी नानी मरती है कि अपनी महान भारतीय संस्कृति का एकमात्र आधार हमने तुम्हें ही बनाया है – तुम न होतीं तो कहाँ होती हमारी यह स्वर्गादपि गरीयसी मातृभूमि…? हमारे ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का सारा दारोमदार तुम्हारी उन्हीं मर्यादाओं की रक्षा करना है जो हमारे ऋषि-मुनियों ने तुम्हारे लिए निर्धारित की थीं। नैतिकता-अनैतिकता, श्लील-अश्लील, चरित्र धर्म सभी के केन्द्र में तो तुम हो – तुम हमारे घर की रानी और शोभा हो, तुम हमारी नाक हो, तुम हमारी मान-मर्यादा हो, तुम हमारी इज़्ज़त हो – जो तुम पर बुरी नज़र डालता है, वह हमारी और उससे भी अधिक तुम्हारी इज़्ज़त लूटता है और इसी इज़्ज़त के लिए हमने हत्याएँ की हैं, ख़ून की नदियाँ बहायी हैं। अब तुम कहती रहो कि यह अमानवीय, नृशंस और पैशाचिक है मगर यह सच है कि न हम उसे माफ़ करते हैं जो इज़्ज़त लूटता है और न उसे ज़िन्दा छोड़ते हैं जिसकी इज़्ज़त लुटती है। दूसरों की जूठी या उपभोग की हुई औरत हमारे किसी काम की नहीं। यह धर्म है और धर्म उसी की रक्षा करता है जो धर्म की रक्षा करते हैं। इसी धर्म की रक्षा के लिए हम दुश्मनों की इज़्ज़त लूटते हैं, उनकी औरतों को चींथते-फाड़ते हैं, उनकी हत्याएँ करते हैं। धार्मिक हिंसा या अत्याचार ही सबसे बड़ा पुण्य है… इसीलिए हमने तुम्हें सती कहकर जलाया है, जौहरों में झोंका है ताकि हमारे बाद कोई दूसरा तुम्हारा उपभोग न कर सके। हमने तुम्हें चुड़ैल और डायन बताकर इसीलिए तो मारा है ताकि हमारे नियन्त्रण से बाहर तुम देवताओं या अशरीरी आत्माओं की सवारी न बन सको। हम तुम्हारे सचमुच अहसानमन्द हैं कि तुमने मीरा और पदमिनी बनकर आध्यात्मिक और शारीरिक आत्महत्याएँ कर लीं, सीता के रूप में कुएँ या खाई में छलाँग लगा ली और हमें कहने का अवसर मिल गया कि तुम ब्रह्म में लीन हो गईं या धरती में समा गईं। यह पाप हमें नहीं करना पड़ा इसीलिए हमने तुम्हें देवी बनाकर पूजा। यहाँ तक कि भ्रूण में तुम्हारा वध किया है ताकि दुनिया पापात्माओं से मुक्त बनी रहे… तुम साक्षात् पाप हो, नरक हो, हमारी उच्चतर यात्राओं में सबसे बड़ी बाधा हो। तुम्हारी साँसों में विष है, तुम्हारे होने में विनाश है, तुम ख़ूबसूरत शत्रु और साक्षात् मृत्यु हो… हमारे शास्त्रोक्त पुरुषार्थ में तुम कहीं नहीं हो – या अगर हो तो सिर्फ़ उतनी जिससे हमारा वंश चल सके और तुम हमारे नियन्त्रण में रह सको। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में तुम्हारी कोई जगह नहीं है! पत्ते और प्लेट की उपयोगिता सिर्फ़ इतनी ही है कि उसमें रखे खाने को खाकर उसे बदल या फेंक दिया जाए… तुम्हीं बताओ, दुनिया में है कोई अन्याय, अत्याचार या अपराध जिसके मूल में तुम नहीं हो? तुम्ही हमें उकसाकर अत्याचारी बनाती हो। हम तुम्हें कैसे स्वतन्त्र और निरंकुश छोड़ दें…? हमें दुनिया नहीं चलानी?

तुम दुनिया-भर की चीख़-पुकार मचाए हो कि हम दुहरे मानदण्डों का इस्तेमाल करते हैं, हम हिप्पोक्रेट और ढोंगी हैं। अरे उल्लू की पट्ठियो, सत्ता के बारे में कुछ जानती ही नहीं? मानदण्डों को डालो भाड़ में, सही वही है जो कल्चर स्वीकार करे – दुहरे-तिहरे की बकवास को अपनी ‘उस’ में रखो…

सच बात तो यह है कि हम तुम्हें समझ नहीं पाते। तुम्हारे शरीर से लेकर मन की बनावट साली ऐसी जटिल जलेबी और ऊबड़-खाबड़ है कि आदमी उसी में भटककर खो जाए – हमारे लिए तो वह ऐसा अन्धकार-लोक और अनखोजी दुनिया है जहाँ कहीं रास्ता ही नहीं दिखायी देता – साँप-बिच्छुओं और जंगली जानवरों का डर अलग हर वक़्त प्राण सोखे रहता है। हाँ, हम तुमसे डरते हैं क्योंकि शरीर से लेकर मन तक हर कहीं हम इतने सीधे, सरल और सपाट हैं कि तुम आसानी से हमारी नस-नस समझ जाती हो और हम है कि टेढ़े-सीधे जंगली रास्तों पर ही भटकते और लुढ़कते रहते हैं। जिसे हम जानते नहीं, उसकी उपस्थिति हमें डराती है, उसमें हमें देवी और जिन्नाती शक्तियों का वास लगता है। या तो हम उसे ख़त्म कर देना चाहते हैं या पूजकर उसके चरणों में माथा नवाकर उसे अपने अनुकूल कर लेते हैं। तुम्हारी रहस्यमयी बनावट ही हमें नर्वस बनाए रखती है। जिसे तुम हमारा पुरुष अहं और अत्याचार करना कहती हो वह हमारे भीतर के डर की अभिव्यक्तियाँ हैं, असुरक्षा की आत्मघाती कुण्ठाएँ हैं, चूहे-बिल्ली के इस खेल में पता नहीं कब तुम्हारा दाँव लग जाए और तुम हमें खा-चबा डालो… तुम्हारा सामना करने के लिए हमें दुनिया-भर के कुश्ते, शिलाजीत, जिनसेन और वियाग्रा खाने पड़ते हैं – ड्रगों और शराबों से शक्ति खींचनी पड़ती है। डण्डों और घरेलू कारागारों का इस्तेमाल करना होता है। सच बात यह भी है कि तुम हमें अपने बीच की चीज़ लगती ही नहीं हो। लगता है किसी अलग लोक की प्राणी हो, तरह-तरह के माया-जाल फैलाकर हमारी बुद्धि और शक्ति भ्रष्ट कर देती हो… हम कैसे तुम पर विश्वास कर लें कि कल तुम पलटकर हमें ही नहीं डस लोगी या इठलाती हुई दूसर के साथ न चल दोगी? जिसने तुम पर विश्वास किया, समझो वह मारा गया। कभी-कभी तुम्हें बोलते-हँसते, चलते-फिरते देखकर हमें विस्मय होता है कि कौन है ये प्राणी जो ठीक हमारी तरह सब कुछ करते-बोलते हैं, मगर हममें से नहीं है। इनकी बिल्कुल एक अलग और अपरिचित दुनिया है जहाँ से कभी-कभी बाहर आकर हम में घुल-मल जाते हैं और फिर वापस बड़े रहस्यमय तरीक़े से अपनी दुनिया में लौट जाते हैं। हमें पता ही नहीं चलता कि इनके यहाँ क्या होता-पकता रहता है। हम साथ पैदा होते, पलते बढ़ते हैं, खेलते-कूदते हैं, लड़ते-झगड़ते हैं – मगर तुम्हें समझते बिल्कुल नहीं है। हर समय तुम्हारी एक अलग गोपनीय तिलस्मी दुनिया है जहाँ हमारी कोई पहुँच नहीं है। हमारे तुम्हारे बीच एक अजीब पारदर्शी शीशे की दीवार है जहाँ सब कुछ आसपास घटित होता है, मगर हमारा नहीं होता… यह किसी अनजान, अपरिचित लोक के वासी होने का ही ख़तरा है कि हम तुम्हें पूरी तरह कूट-कुचल देना चाहते हैं ताकि कभी सिर न उठा सको, पलटकर हमले की बात न सोच सको और सपने में भी बदले जैसा कोई भाव न आने दो… उल्टे कृतज्ञ और अहसानमन्द बनी रहकर गद्गद् भाव से हमारी मंगलकामनाएँ और अनुष्ठान करती रहो, हमारे और हमारे बेटों की स्वस्थ लम्बी उम्र के लिए व्रत-प्रार्थनाएँ करती रहो। हमारे इशारों पर उठती-बैठती रहो। हम हर तरह इस भरम को बनाए रखना चाहते हैं कि तुम अपने आपको हम में से ही एक समझती रहो – कि हम और तुम बराबर हैं, कहीं कोई फ़र्क़ नहीं है… बल्कि हम तुम्हारी अपनों से ज़्यादा इज़्ज़त करते हैं… क्योंकि हम तुमसे डरते हैं… तुम जैसे बनैले और ख़ूँख़ार जानवर को हमने सैकड़ों साल कैसे हण्टरों और कोड़ों की मदद से या भूखा मारकर यानी व्रत रखवाकर पालतू और घरेलू बनाया है – यह हमारा ही कलेजा जानता है – फिर सदियाँ लगीं अपने सोच, स्वभाव और स्वार्थ को घोट-पीसकर तुम्हारी नस-नस में उतारने में ताकि शरीर से तुम अलग होते हुए भी भीतर से ‘हम’ बन सको… हमने तुम्हारे सती-सुहागन रूप को बड़े से बड़े भगवान से ऊपर बैठाया। यह ग़ुलाम बनाना नहीं, अपने परिवेश के लिए अनुकूलित और संस्कारित करना है। सबसे पहले तो इसके लिए तुम्हें दो हिस्सों में तोड़ना पड़ा है – कमर से नीचे और ऊपर की दो औरतों को बाँटने में हमें कितने अनुभवों, दर्शनों और चिन्तनों का सहारा लेना पड़ा है, तुम्हें क्या मालूम? ऊपर उदात्त और करुणा-कल्याण, नीचे वासना, सेक्स और नरक का कर्दम – ऊपर प्रकाश, नीचे अन्धकार… दुश्मन को दो हिस्सों में तोड़कर अलग-अलग निपटना आसान होता है न… अब देख लो। दोनों के स्वामी हम ही हैं, ऊपर परम पुरुष बनकर तो नीचे पुरुष बनकर… सच पूछो हम तुम्हारे कृतज्ञ हैं कि दो हिस्सों में बाँटकर राज्य करने का जो मन्त्र तुम्हारे ऊपर आजमाया था, उसी से आगे सारी सत्ता की राजनीति चलायी – साम्राज्यों, दुश्मनों और परिवार को नियन्त्रण में रखा। अब इसे बन्दरबाँट कहना एक वैज्ञानिक सिद्धान्त को झुठलाने का कमीनापन है।

जानती हो, अपने से ज़्यादा इज़्ज़त किसकी की जाती है? उसकी जो हम में से एक नहीं है। हमारा अपना नहीं, बाहरी मेहमान है, भीतर से जिस पर हमें विश्वास नहीं है। क्योंकि भीतर से हम जानते हैं कि हमारे-तुम्हारे बीच कुछ भी समान नहीं है, न शरीर, न मन, न मन्सूबे… हमारा लाड़-प्यार, दुलार सब तुम्हें बरदाश्त करने और अपनापन दिखाते रहने का हथकण्डा है – जैसे हम बिल्ली-कुत्तों को दुलराते-पुचकारते हैं, सहलाते हैं और साथ सुलाते हैं, लेकिन सबसे ज़्यादा हमारा अहं तृप्त होता है तब जब ये दुम हिलाते हुए हमारे पैरों से लिपटते हैं। हमारी गोद में आकर हमें चाटते-चूमते हैं। हमारा आना या होना इनका उत्सव होता है! चूमते-चाटते हम तुम्हें भी हैं, मगर इस अहसास से कभी मुक्त नहीं हो पाते कि तुम गन्दी चीज़ हो, साक्षात गन्दगी हो क्योंकि सिर्फ़ शरीर हो। हम शरीर भी हैं और आत्मा भी। हम ‘अशरफ़ुल मख़लूक़ात’ यानी धरती की मुकुट-मणि हैं। हम सौन्दर्य और पवित्रता के साक्षात् प्रतिमान हैं, प्रकृति ने हमें ऐसा ही बनाया है! अच्छा क्या तुमने भी कभी अपने आपको दूर से, तटस्थ होकर देखा है? कैसा टेढ़ा-मेढ़ा, भद्दा और ऊटपटाँग शरीर है : मैंने कहा, ऊटपटाँग… अहा, कैसा मौजूं शब्द है। हो सकता है यह ‘ऊँट’ से बना हो : कहा जाता है कि ऊँट की कोई कल सीधी नहीं होती : लम्बी-टेढ़ी गर्दन, पीठ पर कूबड़, बाँसों जैसी टाँगें, चूहे जैसी दुम, धप-धप पैर, हलल-हल थोबड़ा और उससे टपकती लार… तुम्हारे भी दो कूबड़ आगे, दो लौंदे पीछे, बीच में कुएँ जैसी गुफा – जहाँ से हर वक़्त कुछ न कुछ टपकता-रिसता रहता है… गन्दगी का स्रोत… ‘नारी की झांई परे, अन्धौ होत भुजंग’ जब ये बड़ी-बड़ी साध्वियाँ ब्रह्म और आत्मा की ऊँचाइयाँ झाड़ती हैं, माया और जीव के फ़लसफ़े बनती हैं तो पूछने का मन करता है कि बहन जी, आपका सैनेटरी नैपकिन तो ठीक जगह है? तुम्हारी बोउवा ने ही कहा है कि औरत से ऊँची और मौलिक बातों की अपेक्षा कैसे की जा सकती है जो हमेशा जाँघों के बीच ख़ून-पीप की चिपचिपाहट के अहसास से आक्रान्त (ब्लीडिंग बिलो) रहती है। तुम्हारे सारे दिमाग़ी फ़ितूरों का एक ही इलाज है – अच्छा-सा सम्भोग और बच्चों में उलझा देने का मन्त्र। तुम उत्कृष्ट और मौलिक सृजन इसलिए नहीं कर सकतीं कि अपनी सारी सर्जना तो बच्चों में झोंक चुकी होती हो… अच्छा और अगर यह ‘ऊटपटाँग’ शब्द ‘ओरंग-ओटांग’ से बना है तो दाद देनी पड़ती है कि कैसा सही शब्द ढूँढकर लाया गया है – यानी बन-मानुस… शरीर का हर अंग आदमियों जैसा, मगर एकदम अलग और बेढंगा… देखकर ताज्जुब होता है सब कुछ हमारे जैसा, मगर एकदम कोई और… ईमानदारी से कहें तो जब हम तुम्हें गाड़ी, हवाई जहाज़, कम्प्यूटर या ऐसी ही कोई जटिल मशीन चलाते या भाषण देते या दिमाग़ी बातें करते देखते हैं तो अजीब कौतुक और विस्मय होता है : अरे यह तो ठीक हमारी तरह कर रही है – ठीक वैसा ही कौतुक जैसे सरकस में बन्दर या चिम्पंजी को साइकिल चलाते, मेज़ पर छुरी-काँटे से खाते या टाइप करते देखकर होता है – वाह, हमारी कैसी हू-ब-हू नक़ल कर रहा है… अच्छा बताओ, यह बात उस वक़्त क्यों हमारे दिमाग़ में नहीं आती जब तुम खाना बनाती हो, रोटी बेलती, सब्जी छौंकती या स्वेटर बुनती हो। बच्चों को खिलाती-पिलाती हो। हमारी लात या लताड़ खाकर बटन लगाते हुए या यों ही बैठे-बैठे रोती हो। तब तो लगता है कि हाँ, यही तुम्हारी स्वाभाविक और प्राकृतिक जगह है। वहाँ हमें शील और शान्ति, सौन्दर्य और वात्सल्य का वास लगता है, तुम्हारे निरीह रूप पर प्यार आता है। तुम्हें कोई भी बौद्धिक या दिमाग़ी काम करते हए, या ऐसा कोई काम करते हुए देखकर जहाँ स्थिति के हिसाब से तुरन्त निर्णय लेना हो, क्यों पहली बात यही आती है कि बस, बस बहुत हुआ, अब असलियत पर लौट आओ… ये सब मर्दाने काम हैं, इनमें हमें ही सिर खपाने दो जानेमन… जैसे किसी एक्टर को स्टेज पर बहुत उछल-कूद करते देखकर कहने को मन होता है : यह राजा-रानी की एक्टिंग हो चुकी, अब अपने ये मुखौटे-मेकअप उतारो और यहाँ हमारी तरह आकर चुप बैठो… एक चाय बना लाओ और हमारे पैर दबाओ।

चलो, मान लिया कि हमने तुम्हें देह के अलावा कुछ माना ही नहीं। हर वक़्त देह की नाप-जोख, चूमा-चाटी, भजन-कीर्तन करते रहे, तुम्हें तरह-तरह के आसनों-मुद्राओं में खींचते-समेटते रहे, निहारते-निखारते रहे, मुखोष्ठ से लेकर भगोष्ठ तक लीपते-पोतते रहे, दुनिया के सबसे क़ीमती, दुर्लभ आवरणों-आभूषणों से ढँकते-खोलते रहे – मगर सच्चाई यही है कि अप्सरा और योगिनी बनाकर हमने तुम्हें सिर्फ़ देह में ही क़ैद कर दिया। एक ऐसी देह जो भोग से लेकर योग तक में हमारे ऊपर निर्भर है – हमारी मिल्कियत है। तुम ख़ुद भूल गई हो कि हमारे स्वार्थों-हितों या छत्रछाया से अलग तुम्हारे भी कोई फ़ैसले हो सकते हैं, या तुम्हारे पास भी कोई स्वतन्त्र दिमाग़ और विवेक चेतना है! तुम हमारी ‘चीज़’ हो – वह प्रोडक्ट (उत्पाद) हो जिस पर हमारा ठप्पा लगा है – अब वह हमारा कौशल है कि हमने उस ‘ठप्पे’ की भाषा को तराश-सँवारकर कवित्वपूर्ण, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक शब्दावली दे दी है, ऐसा माया-लोक तैयार कर दिया है कि उसी में मुग्ध-मूढ़ बने रहने में तुम्हारी सार्थकता और कृतार्थता है… जो कुछ भी उत्कृष्ट, श्रेष्ठ और उदात्त है उसका श्रेय तुम्हें देकर हम जिस तरह मोहाविष्ठ (मैस्मेराइज़्ड) रखते रहे हैं कि तुम सचमुच ख़ुद उस पर सबसे अधिक आस्था रखती हो… क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारे ऊपर ही हमारी सारी आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और आर्थिक इंडस्ट्रियाँ टिकी हैं। तुम्हें हटा दें तो ये सारे ताश-महल भरभरा कर गिर पड़ें। अरबों-ख़रबों के ये सौन्दर्य व्यापार ही नहीं, इतिहासों, पुराणों के सारे कलश-कंगूरे ढह जाएँ… इसीलिए तुम्हें पीट-पटाकर अपने ढंग से रखना तो है ही… कहीं तो इस सबका श्रेय दो कमबख़्तो…

अब देखो, कितना शोर मचाया तुमने कि तुम स्वतन्त्र व्यक्ति हो, पुरुष की तरह अपने फ़ैसले तुम ख़ुद ले सकती हो, दूसरों के आदेशों या इशारों पर नाचना ही तुम्हारी नियति नहीं है, तुम्हारा शरीर तुम्हारा है, उस पर सिर्फ़ तुम्हारा हक़ है, उसे तुम जैसे चाहो उघाड़ो, खोलो, ढँको या छिपाओ : हमने कहा, चलो ठीक है, यही सही। हमने तुम्हें स्टेज और रोशनियाँ दीं, सौन्दर्य प्रतियोगिताओं का आयोजन किया, तुम्हारे स्वतन्त्र शरीर को केन्द्र में रखकर धरती का चप्पा-चप्पा विज्ञापनों से ढँक दिया, करोड़ों-अरबों के इनाम घोषित किए, साबुन क्रीम से लेकर कपड़े-गहने बेचे… तुम्हारी भी मनमानी हो गई… हमारा भी व्यापार चला। नियंता तो हमीं रहे न… बताओ, हमारे चंगुल से छूटकर जाओगी कहाँ? तुम्हारी स्वतन्त्रता को भी हमने ख़रीदने-बेचने की चीज़ बना डाला। हमसे कहाँ-कहाँ बचोगी डार्लिंग…

हो सकता है तुम्हारा यह इल्ज़ाम सही हो कि गाली या वन्दना, हमने तुम्हें देह के सिवा कुछ समझा ही नहीं – न विवेक, न बुद्धि, न आत्मा… अच्छा बताओ, ऐसा कब और कैसे समझते? हज़ारों सालों से हमारे पुरखों ने तुम्हें और दूसरे ग़ुलामों को शास्त्र, शिक्षा और संस्कारों से दूर रखा क्योंकि जानते थे कि तुम इस लायक़ ही नहीं हो इसीलिए न तुम्हें अपने ज्ञान के पास फटकने दिया, न अपनी भाषा दी – बल्कि व्यवस्था कर दी कि हमारे पवित्र शब्द चुराओगे या हमारी भाषा-बोली को अपनाने की कोशिश करोगी तो वही सजा होगी जो चोर-डाकू की होती है, या तो तुम्हारा सिर काट दिया जाएगा या कानों में उबलता सीसा भर दिया जाएगा… जिसे तुम मूर्ख, अविवेकी और जाहिल बनाए रखना कहती हो, उसके पीछे यही तो सद्भावना थी कि तुम्हारे लिए जो भी सोचना, सीखना या फ़ैसले करने होंगे – वह तुम नहीं, हम करेंगे। प्राकृतिक बात तो यह है कि न तुम्हें कुछ पढ़ने-सोचने का अधिकार है, न अपने फ़ैसले करने का। तुम क्यों इन बेकार के पचड़ों में सिर खपाओ और व्यर्थ के झँझटों में पड़ो? तुम्हारा जीवन हमारी सम्पत्ति है और जब तुम लम्बे इतिहास और अनादि परम्परा के बाद सचमुच मूर्ख, अनपढ़, अविवेकी हो ही गई हो तो हमें ही ज़ोर-शोर से कहना पड़ता है कि तुम मूर्ख और जाहिल हो – कि तुम्हें अक़्ल और विवेकी की बातों से क्या लेना-देना… तुम्हारा नाम ही भाषा में गाली के रूप में इस्तेमाल करने के पीछे कोई तो तर्क होगा। सचाई यह है कि आज भी ये फ़ैसले हम करेंगे कि तुम कैसे रहो, क्या बनो या तुम्हें क्या और कितना देना चाहिए… तुम्हें कितने अधिकार और आरक्षण देने हैं, कब देने हैं, क्योंकि हमारे पास सदियों का ज्ञान और कौशल है… सोचने-समझने की क्षमता और भला-बुरा सोचने का विवेक है! हम शासक, निर्णायक और न्यायकर्ता हैं! अगर भाषा के सारे निर्णायक, प्रभावशाली और शक्तिसूचक शब्द पुरुषवाची हैं तो इसमें गलत या संयोग कहाँ है?

मूर्खों और जाहिलो, हमारी ऊँचाइयों और गहराइयों को तुम क्या खाकर छुओगी? सात जन्म लो तब भी हमारी उन बारीकियों को नहीं समझ सकतीं जिससे हमने तुम्हारा और समाज का ताना-बाना बुना है! स्तुतियों से ही नहीं, गालियों से भी हमने तुम्हें मारा है! जो भाषा हम तुम्हारे लिए इस्तेमाल करते हैं, उसे कभी सुना है? वह सिर्फ़ तुम्हारी देह और देह-सम्बन्धों के बखिए उधेड़ती है, या तो तुम्हारी योनि और वासना की दुर्दमनीयता को धिक्कारती है या अपनी असमर्थता को कोसती है कि तुम्हारी देह को क्यों कुचल और रौंद नहीं पाते… हमने तुम्हारे सारे अस्तित्व को सिर्फ़ चूत से चूचियों तक बाँध दिया है (अश्लील भाषा है न? मगर क्या करें, हम आपस में तुम्हें जानते ही इन्हीं शब्दों से हैं)

हिंसा सिर्फ़ शरीर की नहीं होती, उससे पहले भाषा की होती है – आदमी शारीरिक हत्या करने से पहले भाषा और सोच में हत्या कर चुका होता है।

कितनी हिंसा, कितनी हिक़ारत और कितना क्रोध है हमारी भाषा के शब्द-शब्द में। तुम्हें पशु और पालतू बनाने से पहले भाषा में ख़ुद पशु और हत्यारे हो चुके होते हैं…

अब बोलो, बलात्कार जैसी साधारण-सी बात पर ऐसा आसमान सिर पर उठा रही है। जैसे प्रलय आ गई हो। इच्छा-अनिच्छा को मारो गोली, बलात्कार का अर्थ सम्भोग ही तो हुआ न? बताओ मर्द औरत के साथ सम्भोग नहीं करेगा तो कहाँ करेगा? कोई तो करेगा आख़िर, फिर क्या फ़र्क़ पड़ता है कि वह कौन है। दिन भर में न जाने कितना कुछ घटता है जो हमारी-तुम्हारी इच्छा के अनुकूल नहीं होता। इसके लिए न हत्या की जाती है न आत्महत्या… तुम्हें देखकर अगर हमारे भीतर वासना जागती है तो उसे पूरा करने क्या भगवान उतरेगा? हर बात में तुम्हारी इच्छा-अनिच्छा ही बनी रहेगी तो हम क्या अपनी ऐसी-तैसी कराएँगे? वैसे भी भँवरीबाई वाले मामले में राजस्थान हाईकोर्ट ने फ़ैसला दे ही दिया है कि न बलात्कार जैसी कोई चीज़ होती है, न समर्थ लोगों पर ऐस आरोप सिद्ध होते हैं। नीचों की नस्ल सुधारने के लिए अगर ऊँचे कुछ करते हैं तो उसे बलात्कार नहीं, विकास कार्य कहा जाता है जो राष्ट्र सेवा के नाम से जाना जाता है! बलात्कार को अपराध घोषित करके मौत की सजा या कठोर दण्ड की माँग करना बेहयायी की हद है! उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे…

पर सच बात तो यह है कि न हम तुम्हारे कृतज्ञ हैं, न तुम्हें पूजते-भोगते हैं – हमने तुम्हारे अस्तित्व से तोड़-छीनकर तुम्हें एक ‘आइडिया’ या भावचित्र में, एक अमूर्त-छवि में बदल दिया है और हम उसे ही पूजते हैं, उसे ही छाती से लगाकर प्राण दे देते हैं – मगर तुम्हारी साक्षात उपस्थिति और हाड़-माँस के शरीर से डरते, भागते, भोगते हैं, उस पर थूकते हैं… आदमी को मूर्त व्यक्ति से हटाकर ‘आइडिया’ बनाने में सुविधा है कि हम उसे ‘व्यक्ति’ नहीं ‘विचार’ के रूप में देखने लगते हैं – यानी उसे हिन्दू-मुसलमान, आस्तिक-नास्तिक, दलित-औरत के अमूर्तन में रिड्यूस कर देते हैं। तब हम आसानी से माँ-बहन, प्रेमिका-पत्नी-बेटी को नहीं, औरत नाम के ख़तरनाक प्राणी के रूप में उसे देख रहे होते हैं, उसे निरापराध भाव से मार या पूज रहे होते हैं – सिर्फ अपने विचार या मानसिक आदर्श की रक्षा के लिए… हमने तुम्हें जो इतने सालों में गुमनाम और बे-चेहरा बनाकर रखा, सिर्फ़ माँ-बाप-बेटों-बेटियों, पतियों-भाइयों के सम्बन्धों को ही तुम्हारी पहचान बनाकर रखी, उसके पीछे कोई तो मनोविज्ञान या दार्शनिक सिद्धान्त रहा ही होगा…

अब तुम यह मत कहने लगना कि औरत को देवी और दासी में बाँटकर हम अपने आपको भी हिस्सों में तोड़ रहे हैं – ऐसे दुहरे व्यक्तित्वों में खण्डित कर रहे होते हैं जिनका आपस में न कोई सामंजस्य है, न सम्वाद…

दूसरों को ग़ुलाम बनाने वाला सबसे पहले ग़ुलाम बनाने के विचार का ग़ुलाम होता है

उसके आचरण का निर्धारण अपने स्वतन्त्र विवेक से नहीं – ग़ुलामी के विचार से होता है, एक आब्सैशन से होता है। हिंसा अन्ततः दोनों पक्षों को बराबर तोड़ती है।

जब हमें मुर्ग़ी खाने की भूख सताती है तो उससे पहले मुर्ग़ी की स्वयं इच्छा होती है कि कोई उसे काटकर अपने पेट में सुरक्षित रख ले। हम खाते कहाँ, सिर्फ़ उसे सुरक्षा देते हैं।

दरअसल हमारी त्रासदी और तुम्हारी सुविधा (एडवान्टेज) यह है कि हमारे स्थिर और स्थापित हो चुके रूप को तुम तो तिल-तिल जानती हो, मगर तुम्हारे इस बदलते तेवर को हम समझ ही नहीं पाते, तुम्हारा सारा अन्तर्विश्व और बाहरी परिवेश हमारा गढ़ा हुआ है इसलिए हम निश्चिन्त हैं अपनी भीतरी-बाहरी यात्राओं में तुम सिर्फ़ हमारी छाया हो – तुम्हें पशु, वस्तु और सम्पत्ति मानकर हम निर्भ्रान्त, सन्तुष्ट हैं। उधर अपने को स्थगित करके हमें आत्मसात करने की प्रक्रिया में तुम हमारे भीतर-बाहर के हर मौसम और मूड को हमसे अच्छी तरह समझती हो। हमसे पहले हमारी नीयत और योजना को सूँघ लेती हो। हम तुम्हारे लिए ऐसे पारदर्शी और प्रीडिक्टेबल हैं कि जैसे घरेलू पशु… अब हमें अरेस्टेड-ग्रोथ या रुद्धविकास के प्राणी कहकर क्यों जले पर तेज़ाब छिड़क रही हो…

अच्छा, यह सब बकवास बहुत हो गई, उधर जाकर झाड़ू-बुहारू करो। हमें बड़े और गम्भीर काम करने हैं, दुनिया चलानी है, विचार और चिन्तन से इसे बदलना है ताकि शान्ति से नयी सदी में प्रवेश कर सकें। तुम औरतों-फौरतों के लेखन-वेखन पर बोलते-सोचते रहें तो ये सारे महान कार्य क्या तुम्हारा बाप करेगा?

“वे पत्नियाँ, जो पति की आज्ञा का उल्लंघन करती हैं, मृत्यु के समान हैं, ज़हरीली सर्पिणियाँ हैं, राक्षसनियाँ हैं, उनका क्या उपयोग है, उनका सर्वनाश हो।

समुद्र में जहाज़ों के मार्ग की तरह, वायु में पक्षियों की उड़ान की तरह, पृथ्वी पर स्त्री कहाँ कब जाएगी, कहना कठिन है।”

– वेमन्ना

राजेन्द्र यादव
राजेन्द्र यादव (जन्म: 28 अगस्त 1929 आगरा – मृत्यु: 28 अक्टूबर 2013 दिल्ली) हिन्दी के सुपरिचित लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार व आलोचक होने के साथ-साथ हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय संपादक भी थे। नयी कहानी के नाम से हिन्दी साहित्य में उन्होंने एक नयी विधा का सूत्रपात किया।