हम दोनो हैं दुःखी। पास ही नीरव बैठें,
बोलें नहीं, न छुएँ। समय चुपचाप बिताएँ,
अपने-अपने मन में भटक-भटककर पैठें
उस दुःख के सागर में, जिसके तीर चिताएँ
अभिलाषाओं की जलती हैं धू धू धू धू।
मौन शिलाओं के नीचे दफ़ना दिए गए
हम, यों जान पड़ेगा। हमको छू छू छू छू
भूतल की ऊष्णता उठेगी, हैं किए गए
खेत हरे जिसकी साँसों से। यदि हम हारें
एकाकीपन से गूँगेपन से तो हम से
साँसें कहें, पास कोई है और निवारें
मन की गाँस-फाँस, हम ढूँढें कभी न भ्रम से।
गाढ़े दुःख में कभी-कभी भाषा छलती है
संजीवनी भावमाला नीरव चलती है।
त्रिलोचन की कविता 'स्नेह मेरे पास है'