हम नहीं खाते, हमें बाज़ार खाता है
आजकल अपना यही चीज़ों से नाता है
पेट काटा, हो गई ख़ासी बचत घर में
है कहाँ चेहरा, मुखौटा मुस्कुराता है
नाम इसका और उसके दस्तख़त हम पर
चेक बियरर है जिसे मिलते भुनाता है
है ख़रीददारी हमारी सब उधारी पर
बेचनेवाला हमें बिकना सिखाता है
सामने दिखता नहीं ठगिया हमें यों तो
हाँ, कोई भीतर ठहाका-सा लगाता है!
रामकुमार कृषक की कविता 'एक रजैया बीवी बच्चे'