हम उस दौर में जी रहे हैं जहाँ
फेमिनिज्म शब्द ने एक गाली का रूप ले लिया है
और धार्मिक उदघोष नारे बन चुके हैं
जहाँ हत्या, बलात्कार पर उद्वेलित
धर्म को देखकर हुआ जाता है
जहाँ लड़की अपने घर में अकेली
महफूज़ नहीं मानी जाती
मगर उसे किसी अजनबी के गले बांधकर
अकेले छोड़ा जाना जायज़ है।
जहाँ लोगों को अपने नाम के साथ
हिन्दू, मुस्लिम, जाट आदि लगाकर
झूठा दंभ भरना बेहद ज़रूरी हो गया है
जहाँ गायों के लिए सोशल मीडिया पर
शोर करना उतना ही ज़रूरी है
जितना गली मोहल्ले में
उनको प्लास्टिक चबाने को छोड़ देना
जहाँ बेटियों को ज्यादा पढ़ाना
उनको छूट देना माना जाता है
और नौकरी वाली बहू तलाशना
खुली सोच दर्शाता है
जहाँ लोग पढ़ लिखकर वोट
धर्म और जाति के नाम पर देते हैं
और फिर हाथ जोड़कर
ईश्वर से अच्छे दिनों की कामना करते हैं
जहाँ समाज देता है
भीड़ को अप्रत्यशित हक़
मॉब लिंचिंग का
और पीड़ितों को मिलती हैं महज़
कोर्ट की तारीखें
जहाँ लोग नदियों में
जितनी श्रद्धा से फूल डालते हैं,
अगले ही पल
उतनी ही बेफिक्री से अगरबत्ती की पन्नियां भी..
जहाँ आरक्षण पर आक्षेप
उतना ही आसानी से किया जाता है
जितनी सहूलियत से
अपनी जाति विशेष पर अहंकार..
जहाँ काल्पनिक चरित्र के लिए
सड़कों पर कोहराम मचा दिया जाता है
और बलात्कार पर
कड़ी निंदा और कैंडल मार्च कर
सांत्वना दी जाती है
जहाँ पिछली सदी अब भी खड़ी है
लहूलुहान और हारी हुई
वर्तमान का आईना बन कर
हम उस दौर में जी रहे हैं…