‘Humara Samay Ek Hadsa Hai’, a poem by Pranjal Rai
देवताओं के मुकुट सब गिर गए हैं
आधे टूटे पड़े हैं- धूल में नहाए हुए,
दुराग्रहों के प्रेत करते नंगा नाच चहुँ ओर
कि हमारे समय में अब हादसे नहीं होते,
हमारा समय ही एक हादसा है अब ।
धू-धू करती सभी दिशाएँ
चीख़ कान तक पहुँच न पाए
लिए गोद में शावक अपना
सद्य-प्रसूता हिरणी कातर
खोज रही है एक रास्ता,
एक रास्ता कि जो अब तक
नहीं बना है समिधा उस अग्नि में
जिसकी चिंगारी के ऊपर
जिसकी एड़ी है,
उसकी शक्ल हूबहू मिलती है
उससे जिसे हम मनुष्य कहते हैं ।
और ख़बरों की आग में झुलस जाता है सत्य
दस मिनट, पचास ख़बरों के धक्के से
बिखरा पड़ा है ‘सम्वाद’, अधमरा-सा ।
कितने किसान मरते हैं हर मिनट,
कितने बेरोज़गार मरते हैं हर घण्टे,
कितनी बच्चियाँ मसल दी जाती हैं हर दिन,
कितने सपने मरते हैं हर हफ़्ते,
कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है-
क्योंकि स्वप्नों के इस मृत्युभोज में
उल्लास के साथ शामिल है मेरी बस्ती, मेरा देश-
भूलकर अपने पाँवों से बहता लहू ।
यात्रीगण ध्यान दे पाते
इससे पहले ही वे गुज़र गए,
एक आग है जो बची रह जाती है
गुज़रे हुए यात्रियों के पीछे
जिनकी सुनियोजित यात्रा अधूरी रह गयी है-
एक अप्रत्याशित ‘पूर्ण-विराम’ से टकरा गयी बस
ज़ोर से ब्रेक लगाने की तमाम कोशिशों के बीच ।
इस बीच शिरोरेखाओं के ऊपर जा चढ़े वे लोग
जिन्हें लगता है कि वे देश के भाग्य-विधाता हैं,
जिन्हें लगता है कि रख सकते हैं वे पूरे देश को-
एक छोटे-से कोष्ठक में- संविधान के साथ एक कॉमा देकर,
जिन्हें लगता है कि वे बन जाएँगे
राम की धरोहर के अघोषित ठेकेदार,
जिन्हें लगता है कि फूल मार-मार कर-
कर देंगे गाँधी की हत्या ।
हालाँकि कोष्ठकों से बाहर जैसे ही निकल आएगा देश,
शिरोरेखाओं के कोण बदल जाएँगे, ये सनद रहे ।
दर्शन में मृत्यु एक उत्सव है
उत्तरजीवन के आरम्भ का,
लेकिन कमबख़्तों ने उसे हत्या का उत्सव बना डाला-
कि हत्यारे हाथ हमेशा लाल नहीं होते ।
खण्डित प्रतिमाओं के खण्डहर पर बनाओगे
नए कल का अंतःपुर ?
बीते कल ने लिखा था एक ख़त
आज के पते पर,
वह ख़त मिला नहीं अभी तक-
औपचारिक संदेशों की बाढ़ में बह गया हो शायद ।
हमारी मिट चुकी सभ्यता की खुदाई में मिलेगा वह ख़त-
जिसे हमारे समय के अभिलेख की तरह पढ़ा जाएगा,
यदि पहचाना जा सका हमारी भाषा के रक्त का रंग तो… ।
बाज़ार में घर नहीं है हमारा,
हमारे घर में बाज़ार है ।
चयन सम्भवतः हमारा हो
किन्तु चयन का अघोषित आदेश बाज़ार का ।
उसकी धुन पर थिरकते हुए
बहने लगा है पाँवों से लहू
कि हमारे समय में अब हादसे नहीं होते
हमारा समय ही एक हादसा है अब ।
ठण्डा करो ग़ुस्से की आग को
और देसी भाषा में एक संयुक्त गीत लिखो
धरती के नाम,
धरतीपुत्रों के नाम,
सभ्यता के नाम,
संस्कृति के नाम,
जीवन के नाम,
वृहत्तर मनुष्यता के नाम,
मर रहे सपनों के नाम,
गुज़र गए यात्रियों के नाम,
बिखर रहे देश के नाम
और खो गए उस ख़त के नाम ।
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