हमारी ज़िन्दगी के दिन,
बड़े संघर्ष के दिन हैं।
हमेशा काम करते हैं,
मगर कम दाम मिलते हैं।
प्रतिक्षण हम बुरे शासन,
बुरे शोषण से पिसते हैं।
अपढ़, अज्ञान, अधिकारों से
वंचित हम कलपते हैं।
सड़क पर ख़ूब चलते
पैर के जूते-से घिसते हैं।
हमारी ज़िन्दगी के दिन,
हमारी ग्लानि के दिन हैं।
हमारी ज़िन्दगी के दिन,
बड़े संघर्ष के दिन हैं।
न दाना एक मिलता है,
खलाये पेट फिरते हैं।
मुनाफ़ाख़ोर की गोदाम
के ताले न खुलते हैं।
विकल, बेहाल, भूखे हम
तड़पते औ’ तरसते हैं।
हमारे पेट के दाने
हमें इंकार करते हैं।
हमारी ज़िन्दगी के दिन,
हमारी भूख के दिन हैं।
हमारी ज़िन्दगी के दिन,
बड़े संघर्ष के दिन हैं।
नहीं मिलता कहीं कपड़ा,
लँगोटी हम पहनते हैं।
हमारी औरतों के तन
उघारे ही झलकते हैं।
हज़ारों आदमी के शव
कफ़न तक को तरसते हैं।
बिना ओढ़े हुए चदरा,
खुले मरघट को चलते हैं।
हमारी ज़िन्दगी के दिन,
हमारी लाज के दिन हैं।
हमारी ज़िन्दगी के दिन,
बड़े संघर्ष के दिन हैं।
हमारे देश में अब भी,
विदेशी घात करते हैं।
बड़े राजे, महाराजे,
हमें मोहताज करते हैं।
हमें इंसान के बदले,
अधम सूकर समझते हैं।
गले में डालकर रस्सी
कुटिल क़ानून कसते हैं।
हमारी ज़िन्दगी के दिन,
हमारी क़ैद के दिन हैं।
हमारी ज़िन्दगी के दिन,
बड़े संघर्ष के दिन हैं।
इरादा कर चुके हैं हम,
प्रतिज्ञा आज करते हैं।
हिमालय और सागर में,
नया तूफ़ान रचते हैं।
ग़ुलामी को मसल देंगे
न हत्यारों से डरते हैं।
हमें आज़ाद जीना है
इसी से आज मरते हैं।
हमारी ज़िन्दगी के दिन,
हमारे होश के दिन हैं।
केदारनाथ अग्रवाल की कविता 'मज़दूर का जन्म'