इक मरुस्थल, इक समंदर।
पा रहा हूँ अपने अंदर।
यूँ तुम्हारे दिल से निकला
जैसे लौटा था सिकंदर।
फिर उड़ेंगे खग नए कल
हमसे सुंदर, तुमसे सुंदर।
थकके लौटे ज्वार फिर-फिर
हाथ आया पर न चंदर।
मेरी आँखों के किनारे
खो गए कितने समंदर।
मथ रहे जीवन, देवासुर
एक वासुकि, एक मंदर।
सारे पर्वत हैं अहिल्या
छल गए जिनको पुरन्दर।