जब वह कमरे से बाहर निकला तो कई रास्ते उसे दिख रहे थे। उसे नहीं पता, कौन-से रास्ते उसे मंज़िल तक ले जाएँगे। अगर वह बहुत ईमानदारी से कहे तो उसे नहीं पता कि ‘मंज़िल’ क्या है? क्या किसी पड़ाव को हम मंज़िल कह रहे हैं और खुश हो रहे हैं… ठीक किसी के लिखे की तरह – जिसमें कोई कहे, यह उसकी आख़िरी कहानी या कविता है? क्या ‘आख़िरी’ कविता या कहानी लिख पाना सम्भव है? वह लेखन के कई रास्तों को देख ऐसे ही घबरा गया था, वो कौन सा रास्ता चुने…
उसे लगता है कभी कभी रास्ते ख़ुद अपना यात्री चुनते हैं!
उसे आत्मसंवाद पसन्द है, कहानियों में और अपने सफर में भी। जब वह थके उन रास्तों पर तो, एक छोटी चाय की टपरी पर ठहरकर पी सके एक कप चाय। वो सिर्फ़ चलते नहीं रहना चाहता है, जैसे वो किसी ज़रूरी काम पर हो। उसे मंज़िल तक पहुंचने की जल्दी नहीं है। वह सफ़र का आनन्द लेना चाहता है। वह इतना एकांत रास्ता चुनना चाहता है, कि सफ़र में उसके अपने जूते की आवाज़ भी साथ चल रहे किसी सहयात्री की तरह लगे। वह सफ़र में गिरे पत्ते को उठाना चाहता है अपने हथेली पर, ठीक किसी शब्द की तरह जैसे वह उठाकर रखता है अपने लिखे में। उसे लगता है कई बार सफ़र, मंज़िल से ज़्यादा ख़ूबसूरत होते हैं!
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एक गहरी साँस भर कर मैं सबकुछ समेट लेना चाहता हूँ अपने अंदर। शब्द मरते नहीं है ऐसा मैंने सुना है। मैं मरे हुए प्रेमियों के उन शब्दों को सुनना चाहता हूँ जो प्रेमिकाओं के नाम कहे गये होंगे। मैं हवाओं को चुपचाप सुनता हूँ। इन हवाओं के पास बहुत सी प्रेम कहानियाँ है। ये बुदबुदाती हैं मेरे कानों के पास आकर। बहुत दूर तक फैले सन्नाटों में, असंख्य शब्दों की उड़ती पतंगें देखता हूँ। मांजा मेरे हाथ में नहीं है, मैं इन पतंगों को एक लय में लाकर कोई शब्द नहीं बना सकता… मैं हवाओं पर छोड़ देता हूँ कहानियों की नियति। किसी रोज़ आसमां में पतंगें इकट्ठी होती हैं, और मैं हूबहू उतार लेता हूँ पन्नों पर। मैं देखता हूँ यह सबकुछ हवाओं द्वारा बुदबुदाये गए वही किस्से हैं…
मैं कोई सृजनकर्ता नहीं हूँ… वर्णमाला के अक्षर ही तो हैं जिन्हें मैं किसी जिग सॉ फ़िट के खेल की तरह कहे गए, सुने गए, लिखे गए किस्सों में बस फ़िट कर रहा होता हूँ। इसलिये जब भी कोई मुझे कवि या लेखक कहता है मैं सकपका जाता हूँ। मैं जो हूँ ही नहीं, मैं उस झूठ का बोझ नहीं उठाना चाहता। मैं लेखक या कवि बनना नहीं चाहता, मैं होना चाहता हूँ। मैं होने की तैयारी में भी कई बार हारता हूँ…
“सुनो कॉफी या चाय?”
“तुम क्या पीना पसंद करोगी?”
“कॉफी…”
“तो फिर मेरे लिये ब्लैक कॉफी!”
“कुछ कड़वा सा, दुःख के स्वाद के बराबर…”
“यू ब्लडी राइटर्स…”
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सोचता हूँ अगर मेरे कहने भर से कुछ रुकता तो मैं क्या रोकता? किसी के आँसू, किसी का जाना, सफ़र में गुज़रता कोई दृश्य, अभी अभी गुज़रा कोई ख़ूबसूरत ख़्वाब… पर बस बात इतनी भर कहाँ होती है! रोकता तो कितनी देर रोकता! पकड़ने की चाह और ना पकड़ पाने की असमर्थता मीठी चिढ़ पैदा करती है। यही तो है जो, सबकुछ ख़ूबसूरत बना रहा होता है। मुट्ठी में जमी रेत से कहीं ज़्यादा ख़ूबसूरत है मुट्ठी से गिरती रेत। पतंग का एक दिशा में आसमान में शांत जमे रहना बोर कर देता है। मज़ा तो तब आता है जब हवा तेज़ बहने लगती है, या फिर कोई मांजा उसे काटने आता है। पूरी छत गूंज उठती है। पर क्या इस यथार्थ को ठीक ठीक स्वीकार कर पाना आसान है? शायद नहीं!
हम दुःख को इंकॉग्निटो मोड में रखते हैं, और सुख को ख़ूबसूरत लड़ी की तरह दरवाज़े पर टाँग देते हैं। यह कितना सुखद भ्रम है ना कि ‘सब कुछ कितना अच्छा है’… ठीक वैसे ही जैसे दर्शक दीर्घा में बैठा बच्चा सोचता है कि मंच पर करतब दिखाता जादूगर सचमुच में काग़ज़ से सेब बना दे रहा है।
हम अपने इस भ्रम को बार-बार दोहराते है- ‘देखो कितना बेहतर है सबकुछ’… पर हमारे अपने एकांत में ये सुख ठहरता क्यों नहीं? क्यों किसी बर्फ़ के टुकड़े की तरह पिघल जाता है हथेली पर रखते ही? ये क्या है जो पहाड़ बना जाता है? ये कौन सा ख्याल है जो ठीक से सांस भी नहीं लेने देता? किसी का इंतेजार समय के साथ जमा जाता है, पहाड़ पर खड़े होकर कितनी जोर से चिल्लाऊँ कि वो सुन ले… और यह जमा पहाड़ पिघल जाये और उसी नदी में डाल दूँ अपना दुःख… बह जाये दूर तक… उफ़्फ़! मैं कभी अच्छा लेखक नहीं बन पाऊँगा… लिखने में इतना कौन भटकता है?!
“तुम ज्यादा सोचते हो नीरव! चाय बनाऊँ, पियोगे?” उसने कहा।
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कभी कभी लगता है कितना बनावटी जीवन जिया है हमने। एक ख़ूबसूरत पर्दा टांग दिया है दरवाज़े पर जिसपर ख़ूबसूरत चित्र उकेरे गये हैं, ख़ूबसूरत शब्द गोदे गये हैं, और आते-जाते लोगों ने रुककर देखा और कहा- “वाह ‘सचमुच’ ख़ूबसूरत है…”
एक जीवन वह भी है जहाँ निराशा है, उदासी है, अनगिनत वासनाएँ हैं, बेचैनी है, चाह है, कुएं से भी गहरी हूक है। एक जीवन वह भी है जहाँ प्रेम क्षणिक था, पर कहा नहीं गया। मन ने कहा, उसके कंधे पर सिर रख के गहरी सांस भरी जाये। कभी किसी की आँखों को देखकर लगा, कहा जाए क्या मैं तुम्हारी आँखों को ठहरकर देख सकता हूँ।
किसी को गले लगाने की गहरी चाह उठी और जी हुआ कहा जाये- सुनो मुझे अभी-अभी तुमसे प्रेम हुआ है और शायद सेकंड के सुई के नियत स्थान पर आते-आते विलीन हो सकता है- और वह मुस्कराकर ठीक ठीक विश्वास कर ले।
किसी के साथ शांत सड़क पार करने की इच्छा हुई, तो किसी के साथ पहाड़ों पर ज़ोर से चिल्लाने की… कभी लगा किसी को कहूँ, तुम समुंदर सी हँसती हो, कोई गीत गुनगुनाओ ना। किसी के लिखे पर कुछ लम्बा लिखूँ पर लिख सका – ख़ूबसूरत है। जीवन में व्याकरण के ठीक-ठीक इस्तेमाल करने में हम रुक जाते हैं कहने से- “ये नेरुदा की कविता पढ़ते हुए तुम्हारा ख़्याल आया, हालांकि हम मिले नहीं हैं…..”
और जो अनगिनत बातें कही नहीं गयीं, उन सारी असमर्थताओं को टुकड़ो में लिखता है मन, किसी अकेले कोने में। कितना असमर्थ, कितना कायर… कि कह नहीं सकता तुमने जो तस्वीर साझा की ‘मैं इसका भर प्रेमी हूँ’… व्याकरण के नियम से इतर एक दुनिया जहाँ जैसा कहा गया, ठीक-ठीक समझा जाये…
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मुझे रोमियो-जूलियट, लैला-मजनू, शीरी-फ़रहाद की प्रेम कहानियों में कोई रुचि नहीं है। ना ही मैं जानना चाहता हूँ उन्होंने प्रेम के लिये क्या आदर्श स्थापित किया। हम हमेशा किन्ही सरल चीजों को समझने के लिये मोटी किताबें पलटना शुरू करते हैं… मुझे अपने स्वप्न को समझने की उत्सुकता है और कल रात के किसी सपने को समझने के लिये Sigmund Freud के Interpretation of Dreams को पढ़ने बैठ जाऊँ और तब किसी निष्कर्ष के आसपास पहुँचूँ तो मुझे यह बेवकूफ़ाना लगता है। मैं इस समय थोड़ी और गहरी नींद और एक और सपना देख लेना चाहूँगा। हाँ अगर Freud अच्छी नींद लाने में मदद कर दे तो मैं उनका शुक्रगुज़ार होऊँगा।
मैं Neruda को इसलिये नहीं पढ़ता क्योंकि मुझे प्रेम के किमियो को समझना है, और प्रेम के दाँव पेंच, प्रेमिका के भाव भंगिमा की चीड़-फाड़ करनी है या प्रेम पर कोई साहित्य लिखना है। Neruda मेरे प्रेम को सहलाते हैं।
Alienation, existential anxiety, guilt, और absurdity पर Kafka की अपनी समझ है। उधार की समझ से मैं अपने alienation, absurdity को उलीच नहीं सकता। हाँ, Kafka मेरे एकांत के साथी बन सकते हैं।
बुद्ध कहते हैं- अप्प दीपो भव:। बुद्ध उस किनारे तक लाकर छोड़ देते हैं जहाँ से तुम्हें सिर्फ़ अपने और अपने सफ़र की शुरुआत करनी है। बुद्ध की समझ को ऐसे झाड़ देना जैसे वो नायलॉन के कपड़े पर जमी धूल हो।
जो यही है, मेरे इर्द-गिर्द, जो मेरा अपना है, वो ना Neruda का अनुभव हो सकता है, ना Pessoa का, ना Kafka, ना बुद्ध, ना ओशो का। ये सब साथी हैं, कूदने से पहले इनके हाथ को झटक देना। अकेले कूदना। अपने अनुभव से…
ओशो जब कहते हैं- मेरे कहे को कभी मत मानना.. फिर भी वो सबकुछ क्यों कहते हैं? क्योंकि सारी परिभाषाएँ असत्य साबित होती हैं। कुछ भी थिर नहीं है। ना मैं, ना तुम लतिका…
“नीरव, तुम मुझसे प्यार करते हो ना?”
“कुछ कह नहीं सकता, लतिका।”
लतिका अपना सिर, नीरव के सीने पर रख देती है। नीरव अपने गर्म होंठ उसके माथे पर रख देता है। सब थिर है, शांत है फिर भी सबकुछ बदल रहा होता है। समय की सुई, बादल का रंग…
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(ना कोई कहानी, ना कविता.. चाय की चुस्की के साथ आत्मसंवाद भर…)
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