‘Is Baar Phir Laut Jao Priya’, a poem by Rupam Mishra

इस बार फिर लौट जाओ प्रिये…

देह के विहान होने पर
ब्रह्ममुहूर्त में ही
तुम्हें ढूँढने निकली थी
पर जिस तट पर
तुम खड़े थे
वहाँ पहुँचते-पहुँचते
दोपहर हो गई थी

मैं अभी तुम्हें छूकर
आश्वस्त भी नहीं हो पायी थी
कि तुम्हीं हो न
जिसके लिए
मैं बार-बार जन्म लेती हूँ

तभी आहट हुई
मुड़कर देखा तो रीतियाँ
हमें घेरकर खड़ी थीं
और घबरा रही थीं
कि आज मैं उन्हें
ठोकर मार दूँगी

उन्होंने समाज नाम के
अपने पहरेदार को भी
बुला रखा था
संस्कृति-चलन-सम्बन्ध-सभ्यता
सब उसी के समर्थन में थे

तड़प उठे थे हम
जब हमें
देह की सीमा में बाँधा गया
एक शाश्वत सम्बन्ध को सिर्फ़
संजोग कहा गया

तुम अन्यमनस्क हो जाते हो
पर मैं डटी रही
आज देख लेना चाहती थी
कि प्रेम कैसे प्रलय लाता है

तभी तुम
डूबते स्वर में कहते हो कि
इस बार फिर लौट जाओ प्रिये!
और मैं निरापद हो गयी-
तुम्हीं हो! तुम्हीं हो! तुम्हीं हो!