क्या रह जाता है मृत्यु के बाद
जब पार हो जाती है देहरी
जीवितों और मृतों के बीच?
क्या तब पार हो जाएँगी सारी
सुबहें और रातें भी
स्मृति और विस्मृति के वलयों के बाहर?
फिर रह क्या जाएगा
साँसों के उस पार?
क्या देखकर नहीं पहचान पाऊँगा
मैं, जिसकी बन्द हो चुकी हैं साँसें,
उन लोगों को, जो लेते हैं साँसें?
क्या मेरे बोलने पर भी कोई समझेगा
मेरी भाषा
जीवितों के संसार में?
एक अटूट काँच की
अनन्त दीवार के उस पार
मृत मैं, सब देखता हुआ
और इधर जीवित दुनिया,
अभेद्य काँच के इस पार,
अन्धों-सी,
मुझे न देखती हुई!
एक टपकते नल से
अन्ततः किसी एक क्षण
पूरा पानी बह जाने की तरह
रीते हुए नाम, पते
और आवाज़ों के सारे अर्थ
धूल मिट्टी हो जाने पर
क्या बचेगी नहीं प्यार की ऊष्मा,
जो कभी मैंने दी
और जो कभी मुझे मिली?
सब खो जाने पर भी
क्या आँच नहीं आएगी उस प्यार की
शरीरी और अशरीरी की
दुर्गम, निर्मम सीमाओं को भेदकर?
क्योंकि आख़िर में
प्रेम ही तो दहकता है चिताओं के
अवशेषों में,
धुएँ में और
हाड़ के अंगारों में
अगर जल जाए देह के साथ
पूरी तरह प्रेम भी
तो क्या गीली नहीं होंगी
ईश्वर की आँखें?
सिद्धार्थ बाजपेयी की कविता 'कुछ कह रही थी छोटी चिड़िया'