मैंने चाहा था
कि चुप रहूँ,
देखता जाऊँ
जो कुछ मेरे इर्द-गिर्द हो रहा है।
मेरी देह में कस रहा है जो साँप
उसे सहलाते हुए,
झेल लूँ थोड़ा-सा संकट
जो सिर्फ़ कड़वाहट बो रहा है।
कल तक गोलियों की आवाज़ें कानों में बस जाएँगी,
अच्छी लगने लगेंगी,
सूख जाएगा सड़कों पर जमा हुआ ख़ून!
वर्षा के बाद कम हो जाएगा
लोगों का जुनून!
धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।
लेकिन मैंने देखा—
धीरे-धीरे सब ग़लत होता जाता है।
इच्छा हुई मैं न बोलूँ
मेरा उस राजा से या उसकी अंधभक्त प्रजा से
क्या नाता है?
लेकिन सहसा एक व्याख्यातीत अंधेरा
ढक लेता है मेरा जीवित चेहरा,
और भीतर से कुछ बाहर आने के लिए छटपटाता है।
एक उप-महाद्वीपीय सम्वेदना
सैलाब-सी उमड़ती है—अंदर ही अंदर
कहीं से उस लाश पर
अविश्वास-सी प्रखर,
सीधी रोशनी पड़ती है—
क्षत-विक्षत लाश के पास,
बैठे हैं असंख्य मुर्दे उदास।
और गोलियों के ज़ख़्म देह पर नहीं हैं।
रक्तस्राव अस्थिमज्जा से नहीं हो रहा है।
एक काग़ज़ का नक़्शा है—
ख़ून छोड़ता हुआ।
एक पागल निरंकुश श्वान
बौखलाया-सा फिरता है उसके पास
शव चिचोड़ता हुआ
ईश्वर उस ‘आदिवासी-ईश्वर’ पर रहम करे!
सत्ता के लम्बे नाख़ूनों ने जिसका जिस्म नोच लिया!
घुटनों पर झुका हुआ भक्त
अब क्या
इस निरंकुशता को माथा टेकेगा
जिसने—
भक्तों के साथ प्रभु को सूली पर चढ़ा दिया,
समाचार-पत्रों की भाषा बदल दी,
न्याय को राजनीति की शकल दी,
और हर विरोधी के हाथों में
एक-एक ख़ाली बंदूक़ पकड़ा दी—
कि वह—
लगातार घोड़ा दबाता रहे,
जनता की नहीं, सिर्फ़ राजा की,
मुर्दे पैग़म्बर की मौत पर सभाएँ बुलाता रहे
‘दिवस’ मनाता हुआ,
सार्वजनिक आँसू बहाता हुआ,
नींद को जगाता हुआ,
अर्द्ध-सत्य थामे चिल्लाता रहे।
दुष्यन्त कुमार की कविता 'देश-प्रेम'