आइसोलेशन के अन्तिम पृष्ठ
(श्रमिक)

अप्रैल के नंगे-नीले दरख़्तों और टहनियों से प्रक्षालित
विस्तृत आकाश!
अपने प्रकाश के चाकुओं से
मुझ पर नक़्क़ाशी करो…

सम्बोधन हे! अरे!

1

हम अपनी कल्पनाओं में छोटी-छोटी टपकन सुनते हैं
रात अपने चाँदी के नल से चुपके से टपकती रहती है
हम पाँवों के बल
टपकन की एकाग्रता में एक गीत गुनते हैं..
क्रूर अप्रैल में शहर भी सारे क्रूर हो गए
इससे पहले कि वे हमारा भख ले लें
हमने ही उनको छोड़ दिया

2

भोर में आसमान के शीशे में हम हमारा चेहरा धोते हैं
हवाओं से आचमन करते हैं
पीली, झुलसती पत्तियों से दातुन करते हैं
आँसुओं की क्रीम से गालों को चमकाते हैं
एक सम्पीडित क्रोध से आँखों को आँजते हैं
आँखों में उभरे लाल डोरों से काली डामर की लम्बाई मापते हैं
हमने कंघी नहीं करी
चमेली का तेल व काठ की कंघी
माँ के सिरहाने ताखी में पड़ी है
हम अपने पट्टे पहुँचकर ही जमाएँगे
हम माँ से मिलने जा रहे हैं

3

माँ बिहार में कोसी के दलदल में रहती है
पुरूलिया में घुटनों तक पानी में धान रोपती है
थार के एक झोंपे में गोबर से चूल्हा लीपती है
शेखावाटी के दूर-दराज़ के
पीपल गट्टे पर प्याऊ चलाती है

माँ तेरे लिए सूरत का डायमण्ड तो नहीं
डायमण्ड जैसा मन लेकर आ रहे हैं

4

यह ज्येष्ठ की दुपहरी
वसन्त जैसी नहीं खुलती माँ
हम आक्खा दिन डामर पर चलते हैं
और
गृहस्थी को सिर पर चक कर रखते हैं

5

कुछ तेरे लिए माँ, कुछ अपाहिज भाई के लिए
हम कुछ-कुछ बचे हुए हैं
तेरी बहू पेट से है
कोख में ही अभिमन्यु सरीखा है
पर कौरव पक्ष की गारण्टी कौन लेगा
कभी के अठारह दिन समाप्त हुए
अठारहवीं रात्रि बीते कितने ही दिन बीत गए
और कितना चलेगा यह युद्ध?
कृष्ण तुम समाप्ति का शंखनाद क्यों नहीं कर लेते?

मेरी माँ तो तेरी परम भक्त है
तुझे छाँटणा छिड़के बग़ैर
वह चा की एक टीपरी हलक से नहीं उतारती।

6

हमारे चारों ओर बादल उड़ते हैं
कपास के नहीं
छालों के
मरहम के बादल
चीलगाड़ियों के लिए संरक्षित हो गए।

7

हमारे अनजाने शरीर कीचड़ से ढँक गए
जैसे हम कोकून पहनकर चल रहे
हम उस परिवर्तन को जोह रहे
जो उस तितली को नसीब है
जिसके रंगों की कल्पना से
हमारी पीठ पर पँख उग आए हैं
अब हम फफोलों वाली पगथलियों से नहीं
रंग-बिरंगे पंखों से उड़कर
आ रहे हैं माँ।

8

हमारे पीछे
तीन मूक-बधिर लुगाइयाँ भी हैं
उनकी आँखों में
उनकी पेट की भूख मर गई है
पर वे ज़िन्दा हैं
नागिन-सी डामर का काला रंग
उनके कोयों में उतर आया है।

सपाट मील से लेकर असीम सफ़ेद आसमान तक
हम सब ध्यान से चबा रहे तपता सूरज
पानी की तरह पी रहे मातम
जब रात के सितारे हमारे बदन पर सुइयाँ चुभोते हैं
हम उन्हें तोड़कर दर्द-निवारक गोलियाँ बना
बेबसी के थूक संग निगल जाते हैं।

9

दूर से चिलचिलाती पुलिस की गाड़ी
नज़दीक आते-आते
एक दीवार घड़ी बन जाती है
जो अपने डंके ठीक राइट-टेम पर बजा देती है
मैं चाहता था
वे अपने हाथों के गुलदस्ते हमें सौंप जाते
हम गेंदें और गुलाब सूँघ लेते
कुछ हद तक तो प्यास शान्त हो जाती।

10

यह ऐसा है
जैसे हमें एक काँच के वातावरण में उतारा गया है
एक टिप्पणी
काँच की सतह पर
पानी की बूँद की तरह रेंगती है
और हमारे वातावरण को
धुँधला कर देती है।

11

सड़क किनारे
मैं मरी हुई पत्तियों को समतल भूमि पर
टिके हुए देख सकता हूँ
और झाड़ियों की गन्दगी को
कंक्रीट के टुकड़ों के बीच
जहाँ ज़मीन अवसाद में चली जाती है
और कंक्रीट का पिघलना शुरू हो जाता है
जिनसे काला-गाढ़ा मवाद रिसता है।

12

मेरी व्यग्रता
अब पहिए की तरह है
जो ढलान पर लुढ़कता है
आज दिन ढलते
गोधूलि वेला में
हम ड्योढ़ी को छू लेंगे

मैं रगड़ता हुआ
घुटनों के बल गिर जाता हूँ
सुबकता
यह एक एस्पिरिन के जैसा है
जिसे सिर्फ़ हमारी रगें जानती हैं

दुःख की एक लम्बी प्रक्रिया है
एक लम्बी यात्रा
फफककर गिर पड़ना
इसके मील के पत्थर हैं
मैंने हाथ फैला लिए
उस गाँव की ओर
जिसके झोंपों के आकाश में
फोग के धुएँ के बादल उठ रहे हैं।

Book by Pratibha Sharma: