धीर धरना
राग वन से रूठकर जाना नहीं पाँखी

फिर नए अँखुए उगेंगे
इन कबन्धों में,
यह धुँआ कल बदल सकता
है सुगन्धों में,
आस करना
कुछ कटे सिर देख घबराना नहीं पाँखी

शोर गुल से रागिनी के
स्वर नहीं घिसते,
इस मरुस्थल में बनेंगे
फिर ललित रिश्ते,
आँख भरना
पर मधुर संगीत बिसराना नहीं पाँखी

क्षति नहीं होती प्रणय की
नीड़ जलने से,
इति नहीं होती बधिक का
तीर चलने से,
नहीं डरना
क्रौंच का बलिदान दुहराना नहीं पाँखी

सृजन की सम्भावना है
धरा जीवित है,
पवन हैं उनचास जग में
रस असीमित है,
मत बिखरना
ज़िन्दगी ने मौत को माना नहीं पाँखी

महेश अनघ की कविता 'नहीं नहीं, भूकम्प नहीं है'

Book by Mahesh Anagh: