वक़्त की रेशमी रस्सी
मेरे हाथ से
फिसल रही थी
इतिहास का घोड़ा
उसे विपरीत दिशा में
खींच रहा था
तुम्हें
यह कितना बड़ा मज़ाक़ लगता था
जब मैं उसे अपनी तरफ़ खींचता था
रस्सी का छोर
छूट गया
और
इतिहास से
मेरा रिश्ता टूट गया
दरअसल
वह मेरा इतिहास था ही कहाँ!
उसे
तुम लिखते रहे
और
हर पृष्ठ पर
मेरे हस्ताक्षर
करवाते रहे।
तुम ने
सूर्य-वायु-अग्नि की पूजा का आदेश दिया
मैं
उनका स्तुति-गान करता रहा।
तुमने
उन शक्तियों के नियंता की बात कही
मेरा सिर
सिजदे में झुकता रहा।
तुमने
राजा को
दैवी अधिकार दिए
मैं
गर्व से सैनिक बनकर
धरती को
अपने ख़ून से
रंगता रहा।
तुम ने
मुझे प्रजातंत्र दिया—
मैं मतदाताओं की क़तार में
खड़ा हो गया
शीघ्र
वह क़तार
राशन की क़तार में
बदल गई…
इतिहास को
पलटने की
आदत है—
इतिहास का अश्व लौट आएगा
मैं फिर से
रेशमी रस्सी को सम्भालूँगा
क़तार में खड़े लोग
उसे अपने हाथ में थामेंगे।
अब
मैं ख़ुद इतिहास लिखूँगा
तुम
उस पर
हस्ताक्षर नहीं करोगे
उस पर
नत्थू और अब्दुल की मोहर लगेगी।
लेकिन अपनी गवाही दर्ज करने से पहले
वे/इतिहास के पृष्ठ को
सूँघकर देखेंगे/कि उससे
वह गंध
आती है या नहीं
जिसे
उनकी कमीज़ पर बने
पसीने के सफ़ेद निशान
हर रोज़
चारों तरफ़ बिखेरते हैं!
पूरन मुद्गल की कविता 'एक चिड़िया उसके भीतर'