दलित पैंथर के संस्थापक ज. वि. पवार से राजश्री सैकिया की बातचीत
ज. वि. पवार दलित-पैंथर के संस्थापकों में एक रहे हैं। इस संगठन ने 1980 के दशक के शुरुआती वर्षों में अपनी गतिविधियों से भारत ही नहीं, दुनिया-भर का ध्यान खींचा था। इसी संगठन को दलित-साहित्य का जनक भी माना जाता रहा है। लेकिन तथ्य यह है कि ‘दलित-साहित्य’ ही ‘दलित-पैंथर’ का जनक रहा है। पवार एक कौंध की तरह यह ध्यान दिलाते हैं कि संगठन और आंदोलन से पहले साहित्य है, इसलिए दलित साहित्य को अधिक अहमियत दी जानी चाहिए। यह सब कैसे शुरू हुआ, कैसे तत्कालीन सरकार ने इस संगठन को पंगु बना डालने के लिए सुनियोजित अभियान चलाया और दलित साहित्य की मूल अवधारणा क्या रही है, आदि प्रश्नों पर दलित साहित्य अध्येता व युवा आलोचक राजश्री सैकिया ने ज. वि. पवार से बातचीत की। प्रस्तुत मुख्य अंश—
राजश्री सैकिया: पवार सर, आप दलित पैंथर के संस्थापकों में से एक रहे हैं, यह एक ऐसा आंदोलन था, जिसने देश की राजनीति ही नहीं, साहित्य को भी गहराई से प्रभावित किया था, इसीलिए इस बातचीत के पहले प्रश्न के रूप में आपसे यही जानना चाहूँगी कि ऐसी क्या परिस्थिति हुई जिसकी वजह से दलित पैंथर की स्थापना करनी पड़ी?
ज. वि. पवार: जब तक बाबासाहेब आम्बेडकर जीवित थे तब तक उस ज़माने के जितने भी नेतागण थे, उनको बाबासाहेब के ख़िलाफ़ जाने की हिम्मत नहीं थी। बाबासाहेब के महापरिनिर्वाण के बाद दलितों के ऊपर फिर से अन्याय-अत्याचार शुरू हो गए। उस ज़माने में हमारी समस्याएँ बाबासाहेब की क़लम के कारण दिखने लगी थीं। उससे पहले तो हमें अपना विचार, अपना दर्द रखने की अनुमति ही नहीं थी। बाबासाहेब की जो लड़ाई थी, वह ब्रेन और पेन (बौद्धिकता और क़लम) की थी। लेकिन, इस सब के बावजूद 1960 के बाद भी दलितों पर अत्याचार हो रहा था। जब इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री थीं, उस ज़माने में शासन ने दलितों का साथ दिया था। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने एक कमेटी स्थापित की और उसका एक अध्यक्ष नियुक्त किया। इस समिति को ज़िम्मेदारी दी गई कि पूरे भारत में जहाँ-जहाँ दलितों पर अत्याचार हो रहे हैं उन पर एक रिपोर्ट तैयार करें। यह रिपोर्ट 3 जनवरी 1972 को संसद में पेश होने वाली थी, पर यह रिपोर्ट इतनी मज़बूत और शक्तिशाली थी कि उसकी वजह से सरकार को ख़तरा था। इस वजह से यह रिपोर्ट तीन महीने तक ऐसे ही पड़ी रही, उसको संसद में पेश होने नहीं दिया गया। कुछ नेताओं के ज़ोर देने पर 1974 में इसे संसद में पेश किया गया।
जिस प्रकार के अत्याचार दलितों पर भारत में हो रहे थे ठीक वैसे ही अत्याचार अमेरिका में काले लोगों के ऊपर हो रहे थे। जिसकी वजह से काले लोग सड़कों पर उतरे और ‘ब्लैक पैंथर’ नामक संगठन शुरू किया। वह सब देखने के बाद हमने विचार किया कि हमें क़लम की ही नहीं, लड़ाकू संगठन की भी ज़रूरत है, ऐसे लेखकों और कार्यकर्ताओं की ज़रूरत है, जो लड़ सकते हैं। उदाहरण के तौर पर उस समय मुम्बई के बड़वानी ज़िले के ब्राह्मण गाँव में दो दलित स्त्रियों की परछाई कुएँ पर पड़ने की वजह से गाँव के ब्राह्मण लोगों ने उन्हें निर्वस्त्र कर पूरे गाँव में उनका जुलूस निकाला। यह ख़बर अख़बारों में भी छपी। यह घटना सुनकर हमारा एकदम से ख़ून खौल उठा। नामदेव ढसालजी और मैंने इन सबका विरोध किया कि क्यों बार-बार लोगों के सामने उन दो स्त्रियों को लाया जाए। इस तरह से दलितों पर बहुत अत्याचार हो रहा था। मैंने और नामदेव ढसालजी ने विचार किया कि कुछ ऐसा किया जाए कि दलितों के ऊपर हो रहे अत्याचार को रोक सकें। हम ने विचार किया कि हमें आंदोलन करना चाहिए, मगर आंदोलन का नाम क्या रखें। जिस प्रकार अमेरिका में ब्लैक लोगों ने अपने लिए ‘ब्लैक पैंथर’ नाम को चुना, उसी प्रकार हम भी पैंथर जैसा कोई संगठन शुरू करें। वहाँ पर काले लोग थे तो उन्होंने ‘ब्लैक पैंथर’ को चुना, यहाँ हम दलित थे तो हमने विचार किया कि यहाँ हम ‘दलित पैंथर’ नाम रखेंगे। इस तरह मैंने और नामदेव ढसालजी ने दलित पैंथर की नींव रखी। वैसे तो आजकल बहुत लोग बोलते रहते हैं कि हमने दलित पैंथर की स्थापना की, लेकिन सच्चाई यह है कि मैंने और ढसाल जी ने दलित पैंथर की स्थापना की और यह लड़ाई शुरू हुई।
राजश्री सैकिया: आपके अनुसार दलित पैंथर आंदोलन कहाँ तक सफल हुआ है? क्या आप इसकी सफलता से संतुष्ट है?
ज. वि. पवार: हमारा जो दलित पैंथर आंदोलन था, वह 1972 की 9 मई से 1975 की 12 जून तक चला। केवल तीन साल हमने कार्य किया। जैसे ब्लैक पैंथर ने भी तीन साल या चार साल ही काम किया। असल में कितने साल काम किया, उससे ज़्यादा ज़रूरी है कि क्या काम किया। हमने अन्याय-अत्याचार के ख़िलाफ़ ख़ूब काम किया। सरकार भी हमसे डरने लगी। उस समय दलित लोगों को यह लगने लगा कि उनके लिए लड़ने वाला कोई तो है। हमने किसी को मारा नहीं, हमने किसी के ऊपर हमला नहीं किया, हमने शस्त्र नहीं उठाए। उस ज़माने में दलित पैंथर के नाम जो भी पत्र आते थे, सब मेरे पास ही आते थे। इतने बड़े मुम्बई शहर में ज. वि. पवार, दलित पैंथर के नाम से जो भी पत्र आता था बराबर मेरे पास ही आता था, चाहे वह कहीं से भी लिखा हुआ हो, चाहे अमेरिका से भी, मेरे पास ही आता था। इस तरह से संगठन उस समय बहुत प्रसिद्ध हुआ। हमने तीन वर्ष में जो भी कार्य किया उसमें मैं संतुष्ट हूँ, अगर वह आगे चलता तो आज उत्तर भारत, महाराष्ट्र में हर जगह जो अन्याय-अत्याचार हो रहे हैं, वह नहीं होते।
राजश्री सैकिया: दलित पैंथर के विघटन का मुख्य कारण क्या थे? क्या इस संगठन के पुनर्जीवित होने की कोई सम्भावना आप देखते हैं?
ज. वि. पवार: राजनैतिक पार्टियाँ दलितों को साथ लेकर तो चलना चाहती हैं लेकिन वे यह सुनिश्चित करती हैं कि किसी भी प्रकार से दलितों को सत्ता नहीं मिले। दलितों को वहाँ बस निम्न स्तर का काम करना होता है। लेकिन जैसे ही दलित पैंथर सामने आया, दलितों को एक आवाज़ मिल गई। तब जितनी भी राजनैतिक पार्टियाँ थीं, सबको यह लगा कि अब दलित पैंथर की आवाज़ बंद होनी चाहिए। उस समय सरकार में कांग्रेस पार्टी थी। तब सरकार को लगा कि संगठन आगे नहीं बढ़ना चाहिए, इसको यहीं बंद करना चाहिए। इसलिए सरकार ने उस संगठन को बंद करने के लिए पुलिस आदि की सहायता ली। उदाहरण के तौर पर अगर हम पर एक केस किसी ज़िले में हो रहा है तो दूसरा केस लगभग चार सौ किलोमीटर दूरी पर बना दिया जाता था। हमारे पास पैसे तो थे। सरकार को हमने बोला कि हम नहीं डर रहे हैं, अगर केस करना है तो एक ही जगह करो, धारा 153 (भारतीय दंड संहिता की यह धारा ‘उपद्रव कराने के आशय से जनता को भड़काने’ से सम्बन्धित है—साक्षात्कारकर्ता) का जो केस है वह एक ही जगह में डालो। सरकार ने कोर्ट में बहुत सारे केस डाले और इस तरह से हमें परेशान किया कि हम कोर्ट में न जा सकें। इसी का फ़ायदा उठाकर वे हमें जेल में डाल देते थे। सरकार ने संगठन को कमज़ोर करने के लिए सुनियोजित तरीक़े से काम किया। हमारे साथ के कार्यकर्ताओं को अपने साथ मिला लिया और संगठन को विघटित करने का काम किया।
राजश्री सैकिया: अगर दलित पैंथर का जन्म नहीं हुआ होता तो क्या मराठी दलित साहित्य का विकास इतनी तेज़ी से हो पाता? दलित पैंथर और साहित्य के रिश्ते को आप कैसे दिखते हैं?
ज. वि. पवार: दलित पैंथर से पहले हम दलित साहित्यिक रहे थे। दलित साहित्य पहले हुआ, उसके बाद दलित पैंथर हुआ। दलित साहित्य के कई युग ऐसे थे जब कोई लड़ने के लिए तैयार नहीं था, सब केवल क़लम से राज लेने की बात करते थे, रास्ते पर उतरने के लिए कोई तैयार नहीं था। बड़े-बड़े लेखक दलित साहित्य में थे। वे लिखते थे कि हम लड़ाकू हैं, हमको लड़ना चाहिए लेकिन जब लड़ने का समय आता था तो भाग जाते थे। ऐसे सभी नहीं थे, हममें से कुछ लोग थे जो लड़ने का समय आता तो भागते नहीं थे।
बहरहाल, दलित साहित्य की धारणा तो पहले से ही मौजूद थी। बाबासाहेब के विचार दलित साहित्य के विचार थे। जब हमने दलित पैंथर की स्थापना की तो एक तरह का दबाव-कक्ष बन गया। दलित-पैंथर की हर जगह चर्चा होने लगी तो उसी के साथ दलित साहित्य की भी चर्चा होने लगी। इस तरह से दलित पैंथर जैसे-जैसे अमेरिका, लंदन जैसे देशों में पहुँचा, उसी के साथ-साथ दलित साहित्य भी हर जगह पहुँचा। दलित पैंथर के कारण दलित साहित्य का भूमण्डलीकरण हुआ। अगर दलित पैंथर नहीं होता तो इतनी ज़ोर से दलित साहित्य भी नहीं आता, यह बात सच है। लेकिन हम से पहले दलित साहित्य था, उसके बाद दलित पैंथर हुआ। हम लोग मानते हैं दलित साहित्य पहले था इसलिए उसे ज़्यादा अहमियत देनी चाहिए। भले ही कुछ लोग भागने वाले थे फिर भी जो पहले लड़ते थे, उनमें दलित पैंथर आने से और ताक़त आ गई। लेकिन एक बात कहूँगा कि अब हम ‘दलित’ नहीं रहे। जैसे कि अमेरिका में जो काले लोग थे उनका नारा ‘ब्लैक इज़ ब्यूटी’ था, अब वह नारा बदलकर ‘ब्लैक इज़ पावर’ हो गया है। ऐसे ही हम भी अब विचार कर रहे हैं अब हम भी ‘दलित’ नहीं रह गए। अब हम दलित साहित्य नहीं कहते, आम्बेडकरवादी साहित्य कहते हैं।
राजश्री सैकिया: हिन्दी दलित साहित्य के विकास में मराठी दलित साहित्य का क्या योगदान है?
ज. वि. पवार: हिन्दी साहित्य ने मराठी दलित साहित्य का अनुवाद तो किया। लेकिन हम जैसा बोलते हैं वैसा अनुवाद नहीं हो पाता। आजकल ऐसा है कि वहाँ के लोग ही ख़ुद लिखते हैं, इसीलिए उनका साहित्य मराठी साहित्य तक सीमित नहीं है। वे अब अपने अनुभव लिखते रहते हैं। हमारा साहित्य जो था वह कल्पना आधारित साहित्य था किन्तु वह लोग जो लिखते हैं वह साक्ष्य पर आधारित लिखते हैं। इसीलिए उनका जो साहित्य है वह सशक्त साहित्य है। यह सच है कि दलित साहित्य का आरम्भ मराठी दलित साहित्य ने ही किया, लेकिन आज की बात की जाए तो हमसे भी अच्छा दलित-आम्बेडकरवादी साहित्य का निर्माण हिन्दी, तेलुगु, कन्नड़, पंजाबी इन सब में हो रहा है। मुझे विश्वास है कि एक दिन ऐसा होगा जब केवल आम्बेडकरवादी साहित्य ही होगा।
राजश्री सैकिया: क्या आप मानते हैं कि दलित साहित्य को सिर्फ़ दलित ही लिख सकते हैं? मैं इस सम्बन्ध में आपकी राय विस्तार से सुनना चाहूँगी।
ज. वि. पवार: हमारे बुज़ुर्गों ने बोला है कि दलितों ने दलितों के सम्बन्ध में दलितों के लिए जो भी लिखा, वह दलित साहित्य है। लेकिन हम ऐसा नहीं मानते। जैसे अब्राहम लिंकन ने बोला, ‘ऑफ़ द पीपुल, फ़ॉर द पीपुल, बाइ द पीपुल’, ठीक वैसे ही शुरू में हमारा दलित साहित्य ‘फ़ॉर द दलित, ऑफ़ द दलित, बाइ द दलित’ था। पर अब जब हम देखते हैं तो ऐसा नहीं रह गया। अब दलित साहित्य में ब्राह्मण स्त्री भी आने लगी हैं। कोई भी जात की स्त्री हो, वह चाहे ब्राह्मण हो या किसी अन्य जाति की, आख़िर है तो दलित ही है। उन लोगों पर भी अन्याय होते हैं, अत्याचार होते हैं। वे इन मुद्दों पर लिखती हैं तो उनका साहित्य भी आम्बेडकरवादी साहित्य है। आम्बेडकर ने संवैधानिक रूप से सभी को न्याय देने का प्रयास किया। संविधान में जो कुछ लिखा है जैसे—समता, समानता, बंधुत्व, एकता आदि के बारे में जो भी लिखेगा, उसको हम आम्बेडकरवादी साहित्य कहेंगे। यह बात ग़लत है कि दलितों ने दलितों के लिए ही जो लिखा, वह दलित साहित्य है।
राजश्री सैकिया: क्या आपको लगता है कि दलित वर्ग और उच्च वर्ग की स्त्रियों की समस्या अलग-अलग होती है?
ज. वि. पवार: हर जाति की अलग-अलग परिस्थिति होती हैं। देखा जाए तो समस्याएँ भी अलग-अलग हैं। मगर आप मनुस्मृति देखोगी तो मनुस्मृति में स्त्री को कोई महत्त्व नहीं दिया गया है। कुछ समय पहले ब्राह्मण स्त्री दलित स्त्री पर हो रहे अत्याचार पर चुप रहती थी। उस पर अन्याय हो रहा है, वह तो दलित है, उसको नंगा किया जा रहा है, हमारा क्या लेना देना, हमारी ब्राह्मण जाति में थोड़ी न हो रहा है—वह इस प्रकार से विचार करती थी। पर अब समय बदल गया है। जैसे कि आज अगर किसी भी दलित स्त्री के ऊपर अत्याचार हो रहे हैं तो ब्राह्मण स्त्री सोचती है कि वह दलित औरत है, वह मेरी जैसी औरत है, वह किसी भी जात या किसी भी पक्ष की हो, उस पर अत्याचार मैं सहन नहीं करूँगी। आज की स्त्री यह चर्चा करती है तो यह अच्छी बात है और उसका हमें स्वागत भी करना चाहिए। पहले वह अपने घरों के बाहर निकलती नहीं थी, बस्ती के बाहर क्या ही हो रहा है, उनको मालूम नहीं होता था। अब प्रौद्योगिकी के कारण ये सब सम्भव हो रहा है। कल जो घर से बाहर नहीं निकलती थी, आज बीच रास्ते में भी लड़ने के लिए खड़ी होती है। वह आधुनिक स्त्री है, जो बाबा साहेब के विचारों के लिए लड़ रही है।
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(राजश्री सैकिया असम विश्वविद्यालय के दीफू परिसर से दलित साहित्य पर शोध कर रही हैं।)