‘Jab Maa Asahay Ho’, a poem by Umesh Kushwaha
जब माँ असहाय
पड़ी हो घर के
किसी एक कोने
में अकेले,
तो उनकी एक
ही कमी है-
वो अनपढ़ और
गृहणी हैं;
उदास हैं वो,
किसी से, कुछ न
कह पाने की साज़िश में,
व्यथा तो कुछ
और है उनकी
हमेशा से अनसुनी,
प्रभु तू सुन क्यों नहीं
लेता उनकी फ़रियाद
एकबार,
तू मिट्टी का है
या मोम का बना,
फिर पिघलता
क्यूं नहीं उनके
भोलेपन से,
या इंतज़ार है
तुझको अब भी
आँखों के
पिघलने का,
तो तू रह
अपनी ही
धुन में,
आधे बरस तो
बीत गए
बाक़ी भी गुज़र
जाएँगे,
हो तरस तो
कभी तरस
दिखा देना तुम!
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