‘Jab Paida Hui Thi Wo’, a poem by Anupama Mishra

जब पैदा होती हुई थी वो
कितनी लाचार हुई थी माँ उसकी
और घिर सी गयी थी
मायूसियों के बादलों में,
जब उसे समाज में वो सम्मान न मिल सका
जो मिल जाता है सहज ही
उस औरत को
जिसने जना है एक बेटे को।
कितनी लाचार हुई वो
जब कर के उसे किताबों से दूर
झोंक दिया गया
गरम चूल्हे की आँच के आगे
ताकि वो सीख सके गुर
हर तपिश को सह सकने की।
फिर लाल साड़ी, सिंदूर
और कई झूठे बनाव, शृंगार
में नहला कर उसे
कर दिया दूसरों के सुपुर्द
ताकि वो और सीख सके
जीवन की अनगिनत अबूझ पहेलियाँ
और हो सके दक्ष
चाकरी में सबकी,
धो सके कपड़े,
चुन सके चावल,
बुन सके ऊनी दस्ताने,
सिल सके पायजामा और ब्लाउज़,
धो सके अपने चेहरे को
अपनी आँखों के पानी से,
माँज सके चमकीले बर्तन,
छुपा सके अपने राख में लिपटे हुए हाथ,
सह सके झिड़कियाँ, डाँट, शिकायतें,
बना सके पानी अपने ख़ून को,
और सींच सके पुरुष की औलाद को,
अपने शरीर के महत्वपूर्ण, सुरक्षित, कोह में।
घुल-मिलकर रह सके सबकी रिवायतों में,
सीख सके सलीका और करिश्माई
कढ़ाई, बुनाई, सिलाई,
बना सके मेजपोश,
कुशन कवर, बच्चों के कपड़े और
खोने को तैयार बैठी रहे,
अपनी आँखों की रोशनी।
वो दिखायी पड़ती है ज़िंदा,
और झाँकती, हँसती
बोलती, बतियाती है
एक हाड़ माँस के खोखल से
किसी मूर्ति में बसी जान की तरह।

अनुपमा मिश्रा
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