‘Janmdin Ke Sirhane’, a poem by Pranjal Rai
समय की धार पर
फिसलती जा रही है उम्र
धीरे-धीरे!
अँधेरे रास्तों से
गुज़रते हुए
दृष्टि की रोशनी
नाप ही लेती है
रास्तों की अथाह लम्बाई।
हर्फ़ लिपटे वातायनों से झाँकते हुए
जुटा लिए हैं
रोशनी के महीन धागों में
लिपटे हुए
कुछ दस्तावेज़
जिन पर बचे रह जाएँगे – हस्ताक्षर।
आमन्त्रित करते हैं
ढलती उम्र के उत्सव
कि राह अभी शेष है।