यह कविता यहाँ सुनें:
जाऊँगा कहाँ
रहूँगा यहीं
किसी किवाड़ पर
हाथ के निशान की तरह
पड़ा रहूँगा
किसी पुराने ताखे
या सन्दूक़ की गंध में
छिपा रहूँगा मैं
दबा रहूँगा किसी रजिस्टर में
अपने स्थायी पते के
अक्षरों के नीचे
या बन सका
तो ऊँची ढलानों पर
नमक ढोते खच्चरों की
घण्टी बन जाऊँगा
या फिर माँझी के पुल की
कोई कील
जाऊँगा कहाँ
देखना
रहेगा सब जस का तस
सिर्फ़ मेरी दिनचर्या बादल जाएगी
साँझ को जब लौटेंगे पक्षी
लौट आऊँगा मैं भी
सुबह जब उड़ेंगे
उड़ जाऊँगा उनके संग…
केदारनाथ सिंह की कविता ‘आना’