प्रख्यात लेखक, फ़िल्मकार और पटकथा लेखक विजय सिंह का बहुप्रशंसित उपन्यास ‘जया गंगा’ राजकमल प्रकाशन से हिन्दी में प्रकाशित हुआ है। अंग्रेज़ी और फ़्रेंच में प्रकाशित होते ही इस किताब ने इन भाषाओं के पाठकों के बीच ज़बरदस्त लोकप्रियता हासिल की थी। इस पर बनी फ़िल्म भी फ़्रांस और इंग्लैंड में पसन्द की गई, जबकि क़रीब 40 देशों में प्रदर्शित हुई। राजकमल प्रकाशन ने भारतीय पृष्ठभूमि पर आधारित इस नायाब उपन्यास को हिन्दी पाठकों के लिए प्रकाशित किया है। हिन्दी में ‘फ़्रेंच इंस्टिट्यूट इन इंडिया’ के सहयोग से प्रकाशित यह उपन्यास पेरिस में रहने वाले एक युवा भारतीय निशान्त की हिमालय में गंगा के उद्गम से शुरू की गई यात्रा की कहानी है। उपन्यास का हिन्दी में अनुवाद मंगलेश डबराल ने किया है। प्रस्तुत है इस किताब से एक अंश—

जया

पतझड़ तुम्हारे साथ आया था और तुम्हारे साथ ही चला गया। वह तुममें ही खो गया। तुम हमेशा की तरह उसकी अकेली विश्वासपात्र रहोगी जिस पर वह अपने भेद खोलता रहेगा।

जब से तुम गई हो, बर्फ़, धूप और हवा का मिज़ाज बदल गया है, ऋतुएँ बदल गई हैं और वक़्त ने हमारी दूरियों के बीच एक मेहराब बना दी है, जो एक सचमुच के पतझड़ को एक काल्पनिक वसंत से जोड़ती है। अगर कोई चीज़ अपने पुराने रूप में बची है तो वह है मोंसूरी पार्क में अनार का पेड़, जिसकी हवा में हिलती पत्तियों की तरह तुम्हारे बाल आज इतिहास के पन्नों में शामिल हो गए हैं।

सूरज जैसे रोता हुआ चमक रहा है। पर्दे के किनारे से मुझे बाग़ीचे में तुम्हारा पसन्दीदा पेड़ दिखायी दे रहा है जिसकी ज़र्द पत्तियाँ कुछ महीने पहले की स्मृति की ओर झाँक रही हैं।

तुम्हें याद है वह रात जब हमारे प्यार ने पूरे चमन में आग लगा दी थी?

और वह हवा जो तुम्हारे सपनों की गुफा में गूँज रही थी?

अनुपस्थिति क्या है, जया? बाथरूम गीला होता है तो तुम्हारा ख़याल आता है। बिस्तर पर चाय छलक जाती है तो तुम्हारा ख़याल आता है। किसी बिल्ली को चोट लगती है तो तुम्हारा ख़याल आता है। गंगा मुस्कुराती है तो तुम्हारा ख़याल आता है।

काश, मैं वक़्त की घड़ी पर  ख़ुदकुशी कर सकता…

मैं गंगा की यात्रा कर रहा हूँ। उसके उद्गम से सागर तक। अभी ऋषिकेश पहुँचा हूँ, जहाँ गंगा एक पौराणिक साँप का रूप ले लेती है, जिसे हिन्दू अनन्तकाल से पूजते आए हैं। जल्दी ही, उसकी लहरों पर मेरी अकेली नाव इस शाश्वत पहेली के साथ अनन्त की ओर चलने लगेगी : मैं कौन हूँ? वह कौन है? वह यहाँ क्यों हैं और तब भी यहाँ क्यों नहीं है? वह क्यों चली गई और तब भी क्यों नहीं गई? कहाँ है वह लक्ष्मण झूला, दो चाहतों के बीच का पुल? काश मैं गंगा की तरह अनन्त समुद्र में समा सकता…

कई दिनों से मैंने कुछ नहीं लिखा।

लिखना मन के भूमिगत आघातों को फिर से जीना है।

वह उस सच को महसूस करना है, जो सच से भी ज़्यादा सच है। लिखना अपने भीतर के उन अनजान सीमांतों में उतरना है जहाँ एक संयोग से तुमने मुझे छुआ था। लिखना अकेलेपन से मिलना है, उसी तरह जैसे हम दोनों गीली रेत पर अन्तहीन सुख के एक पल में मिले थे। उस अकेलेपन से ज़्यादा रचनात्मक कुछ भी नहीं है जहाँ दूसरे की, तुम्हारी उपस्थिति दूसरे किसी भी पल से ज़्यादा उपस्थित है।

कल्पना है चाहत से भरपूर
ख़लाओं की दहलीज़ पर
तड़पते शून्य की सीढ़ियों पर
और क़ातिलाना अनुभूतियों के द्वार पर

जया, एक अन्तहीन पतझड़ की मिठास हो तुम
मनुष्य की नियति पर लिखा एक अनोखा मौसम हो तुम
पत्तियों के रंग बदलता चमत्कार हो तुम
एक सम्मोहन अप्सरा का देवअवतार हो तुम

जीवन एक हजूम है, जया, संयोग और वियोग यहाँ सब एक हो जाते हैं…

निशान्त

निवेदिता मेनन की किताब 'नारीवादी निगाह से' का एक अंश

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विजय सिंह
भारतीय लेखक और फ़िल्मकार विजय सिंह पेरिस में रहते हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में ‘जया गंगा’ (1990), ‘ल नुइट पोइग नार्दे’ (1987), ‘व्हर्लपूल ऑफ़ शैडोज़’ (1992), ‘द रिवर गॉडेस’ (1994) आदि शामिल हैं। आपकी पुस्तकों के अनुवाद फ्रांसीसी तथा अन्य भाषाओं में भी हो चुके हैं। साहित्यिक लेखन के लिए आपको प्रिक्स विला मेडिसिस हॉर्स लेस मुर्स तथा फ़िल्म पटकथा लेखन के लिए बोर्स लिओनार्दो डि विंसी पुरस्कार मिल चुके हैं। रंग निर्देशक के रूप में आपने 1976 में ‘वेटिंग फॉर बैकेट बाइ गोदो’ नाटक का निर्देशन किया। इसके कुछ वर्षों बाद आपने ‘मैन एंड एलिफ़ैंट’ फ़िल्म का निर्देशन(1989) किया, जिसे सौ से ज़्यादा टीवी चैनलों पर दिखाया जा चुका है। पटकथा लेखक और फ़िल्म निर्माता के रूप में आपको ‘जया गंगा’ तथा ‘वन डॉलर करी’ फ़िल्मों के निर्देशन का श्रेय जाता है। ‘जया गंगा’ फ़िल्म पेरिस के सिनेमाघरों में लगातार 49 सप्ताह चली।