‘जीते जी इलाहाबाद’ ममता कालिया की एक संस्‍मरणात्‍मक कृ‌ति है, जिसमें हमें अनेक उन लोगों के शब्दचित्र मिलते हैं जिनके बिना आधुनिक हिन्दी साहित्य का इतिहास नहीं लिखा जा सकता और जो उस समय के इलाहाबाद के मन-प्राण होते थे, जैसे—रवीन्द्र कालिया, उपेन्द्रनाथ अश्क, मार्कण्डेय, दूधनाथ सिंह, अमरकान्त, ज्ञानरंजन आदि। किताब राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई है, प्रस्तुत है एक किताब अंश—

कवि रुचि भल्ला की ताज़ा कविता है—

जो नाम लेती हूँ इलाहाबाद
पत्थर का वह शहर
एक शख़्स हो आता है।
शहर नहीं रह जाता फिर
धड़कने लगता है उसका सीना।

रहती वह फलटन, महाराष्ट्र में है, लेकिन इलाहाबाद उसके अन्दर कुछ इस क़दर घूमता है कि वह कह उठती है—

जब तक जीती हूँ
इलाहाबाद हुई जाती हूँ
जब नहीं रहूँगी
इलाहाबाद हो जाऊँगी मैं

कवि वही जो अपने साथ-साथ मेरे मन के क़रीब की भी बात कहे।

तुकान्त हो, अतुकान्त हो, उमाकान्त हो, रविकान्त वह यादों में बस जाता है। ताज्जुब यही कि जब हम शहर में जी रहे होते हैं तब उसकी ख़ूबी हमें पता नहीं चलती लेकिन जब वहाँ से बोरिया-बिस्तर उठ जाता है तब वह हमारे मन में बस जाता है ख़ुशबू की तरह, उसका नाम लेते ही यादों के रोशनदान खुल जाते हैं।

देखा जाए तो यह एक तरह की बेईमानी है कि मैं ग़ाज़ियाबाद में रहते भी यहाँ की नहीं गिनती अपने आपको। मेरी चेतना यहाँ से 640 किलोमीटर दूर मण्डराती रहती है हालाँकि अब वहाँ मेरा कोई पता-ठिकाना नहीं बचा, बैंक खाता बन्द हो गया और कई प्रियजन, परिजन रुख़सत हो गए। क़ायदे से वहाँ की यादों के फाटक पर ताला डालकर चैन से अपने इस चौदह साला तड़ी पार को तर्पण मान लेना चाहिए। जिसे हमारा नया घर कहा जाता है, चार साल तो इसमें रहते हो गए। वक़्त की चट्टान के बड़े-बड़े टुकड़े मेरे चारों ओर जमा होते जा रहे हैं मगर दिमाग़ का वह हाल है कि टैक्सी में बैठते ही ड्राइवर से कह उठती हूँ, “ज़रा सिविल लाइंस लेना पहले।” ड्राइवर भौचक ताकता है और वाक़ई उत्तरी दिल्ली की तरफ़ चल पड़ता है जहाँ यूनिवर्सिटी की तरफ़ सिविल लाइंस नामक इलाक़ा है। हाइवे 24 की निर्माणाधीन चौड़ी सड़कें देखकर दिमाग़ वर्तमान में लौटता है और मैं संशोधन करती हूँ, “मुझे कनॉट प्लेस जाना है।” अकेले जीने की सबसे अलबेली अदा यही है कि हम ख़ूब ग़लतियाँ करते रहते हैं, अपने दाँतों तले अपनी जीभ काटते रहते हैं पर किसी को भनक तक नहीं लगती कि हम कितने बेवक़ूफ़ हैं। ऐसा ही तो उस दिन भी हुआ—

झटके से आँख खुली। दीवार घड़ी की तरफ़ देखा। पहले लगा ग्यारह बजे हैं। थोड़ी देर टकटकी लगाकर देखा। नहीं एक बजकर दस मिनट लिखा है।

जी धक् से रह गया।

यह क्या कि रात बीती, सुबह बीती, दिन चढ़ गया और अब 1:10 बजे हैं।

बिस्तर पर चश्मा ढूँढा। कहाँ गया। रात पढ़ते-पढ़ते यहीं छोड़ा था किताब पर। किताब से नीचे गिरा पड़ा था। फिर घड़ी देखी। आठ तारीख़ है। अच्छी तरह याद है। कल कई बार घड़ी देखी। छह तारीख़ थी। 6 को कूरियर से दो किताबें आयी थीं। बिस्तर पर पड़ी थीं। एक चेक भी स्पीड पोस्ट से आया था। तकिए के नीचे रखा था।

हाँ मिल गया। चेक पर 31 मार्च की तारीख़ है पर मुझे 6 को मिला।

यारो यह बीच का एक दिन कहाँ गया? इसका मतलब मैं एक की जगह दो दिन सोती रही। कल और आज के अख़बार देखे जाएँ। दरवाज़ा खोलकर देखा।

वाक़ई दो दिनों के अख़बार बाहर फड़फड़ा रहे थे। जल्दी से उन्हें अन्दर किया। कमरों में धूल भर गई थी। रेत की आँधी चली होगी। खिड़कियाँ खुली थीं।

कल और आज दोनों सेविकाएँ घण्टी बजाकर चली गई होंगी। दूधवाला भी लौट गया होगा। इन सबसे यह नहीं हुआ कि एक फ़ोन कर लेते। उन्हें मुफ़्त की छुट्टी जो मिल गई।

सवाल तंग करता रहा। सात तारीख़ कहाँ चली गई? क्या मैं 36 घण्टे बाद उठी हूँ? इतना लम्बा दिन, आंधी-तूफ़ान की आफ़त के साथ, धूप, धूल और गरमी के साथ सर्र से निकल गया। शरीर किसी ज़रूरत पर न हिला न डुला। कोई तलब नहीं हुई, न भूख, न प्यास।

ऐसे कैसे ज़िन्दगी का एक दिन ग़ायब हो गया। बिना मेरी उपस्थिति के। शाम को जिन साथिनों के साथ अहाते में बैठती हूँ, उन्हें भी मेरा ख़याल नहीं आया। एक मिस्ड-कॉल तो कर ही सकती थीं वे। मैं लुटी हुई सी बैठी रह गई।

बाहर धूप थी। चुनौती की तरह चटकदार, चुभती हुई, चौकन्नी । अन्दर धूसर रंग की धूल थी और सन्नाटा।

मैं लेटी-लेटी सोचने लगी अभी उठूँगी। पहले मटके में से पानी निकालकर आँखों पर ठण्डे छींटे डालूँगी। गैस पर चाय चढ़ाऊँगी, डब्बे में से बिस्कुट निकालूँगी। टी पॉट भरकर चाय बनाऊँगी।

हिश्ट, नहीं करनी अपने को इतनी मशक़्क़त। यह क्या कि चाय पीनी है तो ख़ुद बनाओ। ट्रे में सजाओ और अपने आपको पेश करो, “उठिए मैडम चाय हाज़िर है।”

अरे, वे हरे चने कहाँ चले गए, ताज़गी से भरे! आसपास आँखें फाड़-फाड़कर देखा। यहीं तो रखे हुए थे, मैं तोड़कर, छीलकर खा रही थी। धत् तेरे की। लगता है नींद ही नींद में इलाहाबाद की सैर कर आयी। वहीं मिला करती थीं हरे चने की डालियाँ। उसके बाद ‘कामधेनु’ की काजू कतली भी तो खायी थीं। एक-दो कतली नहीं, डब्बा भरकर। किसी ने नहीं टोका, एक मिलेगी बस और नहीं। इलाहाबाद मेरे लिए यूटोपिया में तब्दील होता जा रहा है। वह गड्ढों-दुचकों भरा ढचर-ढूँ शहर जहाँ ढंग की कोई जीविका तक नहीं जुटा पाए हम, आज मुझे अपने स्पर्श, रूप, रस, गंध और स्वाद में सराबोर कर रहा है। कितने गोलगप्पे खाए होंगे वहाँ और कितनी कुलफी? कितनी बार सिविल लाइंस गए होंगे? कितनी बार रिक्शे की सवारी की होगी? बेशुमार, बेहिसाब। आज बैरहना में सचान नर्सिंग होम के पीछे चाटवाले के पास चलना है—चलो। आज लोकनाथ में देसी घी वाली आलू टिक्की खानी है—चलो। बच्चों को पैलेस टॉकीज के सामने क्वालिटी के सॉफ़्टी कॉर्नर से सॉफ़्टी खानी है, वहीं चलो।

***

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