जिस दिन मैंने गाँव को अलविदा कहा
उस दिन मेरा बेटा
खेल रहा था
केदारनाथ सिंह की कविताओं के साथ
और कविताएँ
गालों पर चिकोटियाँ काटती हुईं
तितली की तरह चूम रही थीं उसकी हथेलियाँ
जिस दिन मैंने गाँव को अलविदा कहा
उस दिन मेरी अंधी माँ की आँखें
सजल हो गई थीं
मेरे सिर पर हौले-से हाथ फेरती
कुंकुम का तिलक लगाती हुई
ख़ुश रहना, लम्बी उम्र का दिया था आशीर्वाद
जिस दिन मैंने गाँव को अलविदा कहा
उस दिन तिल-तिल बड़ी होती बहन
मेरे हाथ में रख दी थी
सतरंगी राखी
और अगले बरस ब्याहने की चिन्ताएँ
जिस दिन मैंने गाँव को अलविदा कहा
उस दिन बापू के छूए थे पाँव
और उन्होंने
मेरी पीठ थपथपाते
खाँसते हुए कहा-
घर का सारा भार अब तेरे कंधों पर है
जिस दिन मैंने गाँव को अलविदा कहा
उस दिन हँसते-खिलते
गुवाड़, धोरों और झोहड़ियों नें
मेरी जेब में रख दी थीं
अपनी सारी कलाएँ, लोकगीत, कथाएँ
जिस दिन मैंने गाँव को अलविदा कहा
उस दिन मेरे थैले में थे
सरसों के फूल, गेहूँ की बालियाँ
थोड़ी-सी मिंमझर
तीन जोड़ी कपड़े
दो जोड़ी अंडरवियर, बनियान
तीन बीड़ी के पैकेट और एक किताब
अब मेरे पास शहर में बचे हैं
एक जोड़ी कपड़े
लीरोलीर सपनें
और फटी किताब के कुछेक पन्ने
मेरे प्यारे गाँव! मैं अब
शहर की रची हुई साज़िशों के हत्थे चढ़ गया हूँ
फिर भी भीतर बचा रखी है घास की तरह आस।