‘Jis Tarah Aati Ho Tum’, a poem by Vijay Rahi
जिस तरह आती हो तुम
अपने इस पागल कवि से मिलने
रोज़-रोज़।
जब मिलती हो, ख़ूब मिलती हो,
बाथ भर-भरकर
फिर महिनों तक कोई खोज-ख़बर नहीं।
जिस तरह आती हैं सूरज की किरणें
पहाड़ो के कंधों से उतरकर धरती पर
धीरे-धीरे।
कई बार बादलों का कम्बल उतारकर
आसमानी खिड़की से सीधे कूद जाती हैं।
जिस तरह आती हैं हमारे घर मौसियाँ
बार-त्यौहार पर, बाल-मनुहार पर, सोग पर
कभी-कभी तो अचानक आकर
चौंका देती हैं।
ठीक इसी तरह आती है कविता
और इस चौंका देने वाली ख़ुशी का कोई तोड़ नहीं है।
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