“तुम्हें क़सम है मेरी जो अगर अब एक बार भी रोई!” उसने तेज़ आवाज़ में कहा था।

लड़की घुटकते हुए चुप होने की कोशिश करने लगी। बिना किसी आवाज़ के अब भी आँसू बह ही रहे थे उसकी आँखों से। लड़के को सब बर्दाश्त था मगर उसका रोना। उसने लड़की की तरफ देखे बग़ैर उसके आंसू को पोछना चाहा। लड़की उसकी हथेली को अपने होंठों पर फ़िर अपनी हथेली के बीच रख कर फिर से फ़फ़क कर रो पड़ी।

“कल से हम जागेंगे तो आप नहीं दिखोगे। कौन हमें यूँ प्यार से देखेगा? आज कहाँ जाना है, कितने बजे निकलना है, हम खा के ही घर से निकलें, किसे पड़ी होगी…”

“ऐसे करोगी तो कैसे जा पाऊँगा मैं? कैसे रह पाऊँगा? तुम चाहती हो कि आँखों में तुम्हारा ये उदास चेहरा ले कर जाऊँ मैं?” लड़के ने खुद को मज़बूत बनाते हुए कहा। लड़की ने भी आंसू पोछ लिया। थोड़ी शांत और खुद को सयंत रखने के हिसाब से पानी पीने लगी।

लड़का तब उठा और सफ़र में ले जाने के लिए सिल्वर फॉयल में लपटे आलू के पराठे निकाल लाया। एक पराठा उसे थमा दिया।

लड़की छोटा-छोटा टुकड़ा तोड़ के निगलने लगी। कंठ के नीचे खाना नहीं उतर पा रहा था मगर जानती थी कि वो नहीं खायेगी तो लड़का भी नहीं खायेगा।

लड़के ने हमेशा की तरह हाथों में चाय का ग्लास लिया और पराठा मोड़ कर दूसरे हाथ में, और पहले निवाले को उसके मुँह में डाल दिया। लड़की रोना काबू कर खाने की कोशिश कर रही थी।

रेडियो पर अब ऐड ख़तम हो चूका था। ग़ज़ल के पहले शेर के लिए एंकर न जाने क्या बोली दोनों में से किसी ने कुछ न सुना और फिर-

“कभी लौट आये तो पूछना नहीं,
देखना उन्हें गौर से,
जिन्हें रास्ते में खबर हुई,
कि ये रास्ता कोई और है…”

और ये सुनते ही उसे याद आने लगी कल की शाम जब वो उदास हो गयी थी, तो लड़के ने किसी की परवाह किये बग़ैर उसके लिए तेज़ आवाज़ में गाना गाया था और मज़ेदार किस्से सुनाए थे।

कैसे मूँगफली को छिलके से निकाल पहला दाना उसे खिला रहा था। कैसे उसके चेहरे पर आ रहे बालों को समेट कान पर टिका कर, अपनी उँगलियों से उसके चेहरे की लकीरों को अपने हाथों की लक़ीरों में उतार लेना चाह रहा था।

अपनी हथेली में उसकी हथेली लेके ऐसे प्यार से जकड़ रहा था मानो उसे एहसास दिला रहा हो अपने ज़िन्दगी भर साथ होने का।

वो सारे लम्हें जो पिछले छः दिनों में उसने जिए थे, एक-एक करके उसके आँखों के सामने फिर से तैरने लगे।

और आँसुओं को पलकों की जिस बांध ने रोक रखा था एक बार फिर से टूट गया। पराठा वही साइड में रख उसके कंधे से यूँ लिपट गई कि मानों कभी जुदा न होगी।

“ओह ये कम्बख़्त रेडियो! और बाबू तुम अपना नाक मेरे शर्ट में पोंछ लो रोने के बहाने से!” कहते हुए लड़के ने एक हाथ से रेडियो की आवाज़ धीमी की और दूसरे हाथ से आख़िरी निवाला उसे खिला दिया।

अब आँखों में आँसू लिए उसने लड़के की तरफ़ देखा तो उसकी पलकें भी भीग गयी थीं। वो कुछ कहना चाह रही थी, मगर लड़के ने उसके बोलने से पहले ही कह दिया, “ऐसे ही हैं हम बाबू, बस ऐसे ही…”

लड़की रोते हुए बोली,

“जाइये… अब बस चले जाइये…!”

स्मृति कार्तिकेय
नमस्कार साथियो, हमारा नाम स्मृति कार्तिकेय है और पेशे से इलाहाबद उच्च न्यायालय में अधिवक्ता के रूप में कार्यरत है... पढ़ना और लिखना पसंद है, और हमारा मानना है कि हर एक व्यक्ति लेखक होता है, बस कुछ के पास शब्द ज़्यादा होते है और कुछ के पास कम...