मैंने तो पहले ही कहा था
जंगल में नहीं जाना
जंगल तुम झेल नहीं पाओगे
तुम नामवालों की दुनिया में उपजे हो
जंगल में सब कुछ निर्नाम है
पत्र तो आते हैं ढेर-ढेर
पर कोई पेड़ यह नहीं कहता
मैं पत्रकार हूँ; फ़लाँ पेड़ पण्डित
फ़लाँ मुसलमान है।
तुम शहरी ज़हर के आदी हो
जंगल को सिर्फ़ प्राण-वायु
बिखेरना आता है
कोई हड़ताल नहीं होती मधुछत्तों पर
प्रेम खुलेआम होता है।
अलग-अलग मौसम में लिखते हैं
अलग-अलग कविताएँ—फूल
मगर ऐसी कोई घोषणा
होती नहीं जंगल में…
यह कविता सादी है
यह संस्कृत
यह कविता शुद्ध जनवादी है
और तो और
वहाँ जलन नहीं होती करील को
ऊँचाई देखकर सागवान की
सरपत पी जाता है आंधी
शंकु गिरता धड़ाम से
रुकती नहीं झमकार तब भी झिल्ली की
खेल चलता निःशोक
खेल तुम खेल नहीं पाओगे
तुम जंगल झेल नहीं पाओगे।
कैलाश वाजपेयी की कविता 'रोटी और रब'