‘क’ से ‘कमल’ वाले इस देश में
‘क’ से ‘कश्मीर’ भी हो सकता है
पर उसके लिए आँखों को
थोड़ा सजल करना होगा
हृदय में उतरना होगा
दिमाग़ की परतों को कुतरना होगा
और अपने ही अंतस को भेदना होगा
कश्मीर कहने के लिए जीभ को
चलना नहीं, ठहरना होगा
कानों को जन्नत की चीख़ें सुननी होंगी
कर्फ़्यू जैसी शांति से गुज़रते हुए
आत्मा को किसी असह्य शोर से गुज़रना होगा
नाक को बारूद की गंध का अभ्यस्त होना होगा
कश्मीर कहते हुए ख़ून के बहते दरियाओं की
कल्पना नहीं, हक़ीक़त से रूबरू होना होगा
चेनाब-झेलम के आँसुओं में डूबना-उतराना होगा
खिड़की से स्कूल की अलंघ्य राह तकते बच्चे की नज़रों से
छिटक रहे शून्य को पकड़ना होगा
फिर उसे अंतरिक्ष में गेंद की तरह उछालना होगा
इस उम्मीद में कि क्या पता उसका मन कुछ देर को बहल जाए
कश्मीर कहते हुए उस काल कोठरी के किवाड़ को
खटकाना नहीं, तोड़ना ही होगा
जिसके ताले की चाबी
कुछ जिन्न लिए उड़ रहे हैं हमारे सिरों के ऊपर
चौबीसों घण्टे अट्टहास करते हुए
जो पूरे दक्षिण एशिया को मग्न किए रहते हैं अपने करतब से
वे आपस में करते हैं नूराकुश्ती, छीना-झपटी
कभी चाबी एक के हाथ, कभी दूसरे के
पर नीचे नहीं गिरने देने की उनमें है आम सहमति
जनता उन्हें देख-देख उछलती है, उबलती है,
भिड़ती है, मरती है, मारती है
अंत में अपने ख़ाली हाथ देख फिर से उन्हें निहारती है
ऐसा करते हुए सत्तर बरस बीत भी चुके हैं
कश्मीर कहने से पहले बहुत कुछ कहना होगा
दुहरानी होगी संविधान की प्रस्तावना
कुछ टूट चुकीं राष्ट्रीय प्रतिज्ञाएँ
गाने होंगे शांति के भुला दिए गए गीत
मज़हब से अलग बुना गया देशराग
रोना होगा ज़ार-ज़ार
चीख़ना होगा अताताई की आँखों में डाल आँख
इसलिए आसान है ‘क’ से ‘कश्मीर’ नहीं, ‘कमल’ कहना
ओढ़कर चुप्पी, मुर्दों-सा असीम शांति से भरे रहना।
उषा दशोरा की कविता 'वो लड़का कश्मीर था'