‘Kaanch Ki Duniya’, a poem by Nishant Singh Thakur

काँच का एक गोला है,
उसमें कुछ मछलियॉँ,
इंसान की बसायी हुईं।
कुछ काली, पीली और कुछ रंगीली।
दो दानों पर ज़िंदा।
सब उकतायी हुईं।

एक धरती है,
इंसानों से भरी।
अपने से उपजी,
या भगवान की बसायी हुई।
दानों की भूखी,
दानों को सतायी हुई।
ये किसकी जागीर है?
है किसकी बनायी हुई?

दोनों दुनिया सीमित हैं,
कुछ दिनों, कुछ छोरों तक।
ये काँच फूट गया क्या?
साथ छूटेगा क्या?
इसे क्यों बनाया जाए?
इसे क्यों बसाया जाए?