कभी कभी सोचता हूँ
कि मेरे दफ्तर की दीवारें
शहर की बरसाती नदी का पुल हैं
जहाँ ठहरा रहता है एक दृश्य,
जिसके ऊपर कभी नहीं जा सकूँगा मैं
उफान लेकर सूख जाऊँगा।

कभी कभी सोचता हूँ
दुश्वार क्यूँ है इतना
फोटो से थोड़ी कम खूबसूरत ज़िंदगी को अपनाना?
कह देना मन की
बहक जाना बिना घड़ी के
बिना अंजाम की सोचे
देना एक मशविरा यार को।

कभी कभी सोचता हूँ
कि वक़्त की डिबिया से
जो रोज़ फाँकता हूँ
उन सफ़ेद और स्याह गोलियों को
जेब में रखकर घूमूँ सड़क पर किसी रोज़
भागते दिन की पकड़ लूँ कॉलर
कतरा-कतरा देखूँ ढलता सूरज
फिर रेशा-रेशा रात ढले
और ख्वाबों के परिधान पहन मैं
तारों की बारात में निकलूँ
चाँद की सुरभि सुराही से
पीकर मदिरा मदमस्त कहीं पर
आसमान के शामियाने में
गिरे-पड़े सो लूँ किधर भी।

कभी कभी सोचता हूँ
रोज़ से परे हो एक रोज़
जहाँ बनकर अजनबी अपने पते पर
ठिठक कर रोक लूँ खुद को।
करूँ महसूस
पिताजी का बिस्तर और
उनके कमरे की दीवारों से आती सीलन की गंध
ऑफिस में बॉस के प्रमोशन की भूख
एक नाराज़ यार का अनमने से साथ हो लेना
टूटे दिल के लुप्त आदमी का किरदार
(जिसका ध्यान हँसने की बातों पर देर से जाता है)
नुमाइश में लगी एक शादीशुदा औरत का स्वांग
प्रेम में कोशिश करते लोग
दोस्त का अपनी प्रेमिका का दोस्त हो जाना
अपनी खुशी को औरों से कहने में सावधानी
अर्धसत्य
अन्याय
रोज़ से परे एक रोज़।

फिर कभी कभी सोचता हूँ
कोई तथागत नहीं है यहाँ पर
सभी का है संघर्ष
किन्तु हार किसी की भी नहीं।
सभी हैं विकल्पों के सौदागर
रोज़ बिछाकर बाजी समय की
चुनना है कुछ में से कुछ सभी को।

फिर कभी कभी सोचता हूँ
खामख्वाह सोचता हूँ
कभी-कभी।

सनीश
हिन्दी साहित्य में पीएचडी अंतिम चरण में। 'लव-नोट्स' नाम से फेसबुक पर कहानी श्रृंखला। कोल इंडिया लिमिटेड में उप-प्रबंधक। अभी बिलासपुर (छ. ग.) में।