कभी-कभी छोड़ देना चाहती हूँ
उन लोगों
उन जगहों
उन बातों को
जिनके होने भर से असहनीय भार सा महसूस होता है
कभी-कभी उन सपनों को भूल जाना चाहती हूँ,
जो सिर्फ़ भ्रम पैदा करते हैं
जिनका असर सुबह से दोपहर तक बरकरार रहता है
लगता है, अब मैं इनके भार से दब चुकी हूँ
झुक चुकी हूँ
बिल्कुल वैसे
जैसे
एक उम्र के बाद बूढ़े की रीढ़ की हड्डी
झुक जाया करती है
इन वजहों से अब शब्द घुटने लगे हैं
और एक घुटन के बाद
आदमखोर का रूप रखकर
पहले से भरे पन्नों पर कहर बरपाते हैं
जिसका सन्नाटा
कोरे पड़े पन्नों पर दिखाई पड़ता है..।