कभी-कभी मिरे दिल में ख़याल आता है
कि ज़िन्दगी तिरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाँव में
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी जो मिरी ज़ीस्त का मुक़द्दर है
तिरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी
अजब न था कि मैं बेगाना-ए-अलम होकर
तिरे जमाल की रानाइयों में खो रहता
तिरा गुदाज़-बदन, तेरी नीम-बाज़ आँखें
इन्हीं हसीन फ़सानों में महव हो रहता
पुकारतीं मुझे जब तल्ख़ियाँ ज़माने की
तिरे लबों से हलावत के घूँट पी लेता
हयात चीख़ती फिरती बरहना सर और मैं
घनेरी ज़ुल्फ़ों के साए में छुप के जी लेता
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है
कि तू नहीं, तिरा ग़म, तेरी जुस्तुजू भी नहीं
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िन्दगी जैसे
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं
ज़माने भर के दुःखों को लगा चुका हूँ गले
गुज़र रहा हूँ कुछ अनजानी रहगुज़ारों से
मुहीब साए मिरी सम्त बढ़ते आते हैं
हयात ओ मौत के पुर-हौल ख़ारज़ारों से
न कोई जादा-ए-मंज़िल, न रौशनी का सुराग़
भटक रही है ख़लाओं में ज़िन्दगी मेरी
इन्ही ख़लाओं में रह जाऊँगा कभी खोकर
मैं जानता हूँ मिरी हमनफ़स मगर यूँ ही
कभी-कभी मिरे दिल में ख़याल आता है!