बहार की सुबह थी, ओस छट रही थी, खेतों से सरसो की खुश्बू दूर तक फैली थी, आम के बगीचे में कोयल का राग रह रह कर सुनाई देता था। चिड़ियों का एक गोल तेज़ी से निकला और उसके सर के ऊपर से गुज़र गया।

कालेज के बाहर वह अनजान आदमी देर से घूम रहा था, धूप हुई तो स्वेटर निकाल कर कमर में बांध लिया। आसपास दुकानदार भी उसे घूर रहे थे। कुछ एक ने पूछ भी लिया- “भाई साहब किसी का इंतजार कर रहे हैं?”

घंटी बजी, छुट्टी हुई, लड़कियों की भीड़ बाहर आयी, आदमी ठिठक गया, भीड़ कम हुई, सन्नाटा हो गया। टीचर भी एक-एक करके निकलने लगे। एक नकाबपोश अपने ऑटो रिक्शा की तरफ़ बढ़ी, आदमी पर नज़र पड़ी। वह उसे ही घूर रहा था। नकाबपोश सिहर उठी, रिक्शा छोड़ उसकी तरफ़ बढ़ी और गुस्से में बरस पड़ी, “क्या समझा है, ये तुम्हारी कहानी नहीं है, पागल मत बनो, रुसवा करोगे, मर जाऊँगी, तुम्हें समझ नहीं आता, सब ख़त्म हो चुका है।”

शोर हुआ तो पहले से ताकते दूकानदार उठ कर आ गये, “क्या हुआ आपा, छेड़ रहा क्या? कौन है बे तू, कहा से आया, क्या कर रहा इधर?” किसी ने एक हाथ जड़ा, सर दीवार से टकराया, फूट गया। किसी ने लात मारी, किसी ने घुसा लगाया, दाँत टूटे, शोर बढ़ा फिर थम गया।
लोग चले गये।

चिड़ियों का गोल फुर से उड़ा और उस अजनबी सर के ऊपर से होता हुआ गुज़र गया। खेत से फूली सरसो की खुश्बू दूर तक फैलती गयी, आम के बगीचे मे कोयल देर तक गाती रही।

2

मुझे परिंदे अच्छे लगते हैं, अपनी दुकान पर बैठा मैं खाली वक़्त चिड़ियों को उड़ते लहराते देखता रहता हूँ। आजकल कोयल की मीठी आवाज़ भी सुनने को मिल जाती है, पड़ोस के बगीचे में आमों पर बौर हैं।

कल मुझे कुछ बुखार सा था। किसी काम में मन नहीं लग रहा था। दोपहर में जब खाने के लिए घर जाने का इरादा किया तो सोचा आज वापस नहीं आऊंगा, आराम करूंगा। मेरे दुकान से निकलते ही चिड़ियों का एक जत्था शोर करता हुआ तेज़ी से गुज़र गया, मुझे लगा मेरे बीमार होने से उनमें भी बेचैनी सी है।

बाजी के कॉलेज से गुज़रते हुए ऐसा लगा कि वहां कुछ हुआ है। लोगों के चेहरों पर कुछ अजीब सी परछाइयाँ मंडला रही थी। मुझसे रहा नहीं गया तो यूँ ही पान वाले से पूछ लिया, “क्या भाई, बहार में मुर्दनी कैसी है?” उसने बिना गुटखा थूके, पान के पत्ते पर कत्था लीपते हुए बगल की दीवार की तरफ इशारा किया, जहां सफेद पुताई पर पान की पीक जैसा निशान बना था, लेकिन मुझे समझ नहीं आया तो उसने थोड़ा कड़वाहट से कहा, “अभी एक लफंगे की कुटाई हुई है, मूड़ फोड़ दिए हैं, बस थोड़ी देर पहले, नहीं नहीं मरा नहीं, ढेर नहीं मारे, ग़लती से सर टकरा गया बस।”

मेरे सर मे जो हलका दर्द था, थकान से बढ़ने लगा, बस जल्दी घर पहुंचने का दिल करने लगा। घर के सन्नाटे और दवा से काफी आराम हुआ, लेकिन रात बहुत बेचैनी में गुज़री। चिड़ियों के फड़फड़ाने की अजीब-अजीब आवाज़ें ख्वाब मे सुनाई देती रहीं।

सुबह अम्मा बताने लगी कि बाजी रात भर फिर से रोती रही हैं, कल से खाना भी नहीं छुआ, दरवाज़ा बंद किये पड़ी हैं। बाजी को जाने क्या हो जाता है, न दवा काम करती है न दुआ। कुछ बोलती बताती भी नहीं हैं। दो तीन दिन के बाद खुद ही ठीक हो जाएँगी। हँसेंगी, बात करेंगी, तैयार होकर पढ़ाने चली जाएँगी, जैसे कुछ हुआ ही नहीं था। तीन साल पहले जबसे हम उन्हें ले आयें हैं तब से ऐसा ही होता रहा है। पहले तो उनके घर वाले हाल खैरियत ले लेते थे, सुनते हैं अब कागज़ पत्तर बनवाने की तय्यारी में हैं, ऊपर वाला रहम करे।

देर से दूकान के लिए निकला तो पान वाले के पास से गुज़रते हुए नज़र ख़ुद ही दीवार की तरफ चली गयी। पान की पीक जैसे निशान पर किसी स्कूली बच्चे ने पेंसिल से कुछ ऐसा हाथ चलाया था जैसे एक बड़ा सा गुलाब का फूल उभरा हुआ हो, शायद मैं कुछ देर तक ही खड़ा देखता रह गया, पनवाड़ी ने ज़ोर से सुनाते हुए कहा, “आज कल के बच्चे! पढ़ते कम हैं और कलाकारी ज़्यादा करते हैं।”

मुझे ख्वाब वाली पंखों की फड़फड़ाहट फिर सुनाई दी।

3

पैसों की क्या हाय-हाय करना , हुनर है तो पैसे आ ही जायेंगे। बचपन से काम ही कर रहा हूँ, बहुत कुछ सीखा है, हर सीजन का काम कर लेता हूँ, ऊपर वाले की कृपा रही तो बेटा अच्छे स्कूल में जायेगा। और फिर अभी क्या सोचना, तीन महीने का तो हुआ है। हम तो डरे थे कि बे-औलाद ही मर जायेंगे लेकिन बस ऊपर वाले की कृपा, यह बसंत हमारे घर में भी आ गया।

मेरी पत्नी बहुत सुन्दर है, जब उसे देखता हूँ देखता ही रह जाता हूँ। वह जिस तरह मुझे प्यार करती है..। गाड़ी चलाते हुए ये सोच कर कई बार टकराने से बचा हूँ। मैं भी उसे बहुत प्यार करता हूँ। परन्तु आजकल मैडम पर नज़र पड़ते ही कुछ होने लगता है, कई बार लगता है मैं खामखाह हंस रहा हूँ। उनके रिक्शे में बैठते ही मेरे अंगो में फुर्ती सी आ जाती है। नए फ़िल्मी गानो की धुन कान में बजने लगती है। न चाहते हुए भी नज़रें बार बार रियर मिरर की तरफ उठ जाती हैं। और अगर मैडम ने कभी नज़र पकड़ ली तो ऐसी झुंझलाहट होती है कि बस खुद को गाली देने लगता हूँ।

मुझे लगता है मैडम ज़रूर बहुत सख्त होंगी, लड़कियाँ इनसे कतराती होंगी। मैंने इन्हे बोलते या मुस्कुराते बहुत कम देखा है। बस जब कभी कालेज से जल्दी आना होता है तो उतरते समय इतना कह जाती हैं कि मैं जल्दी चली जाऊँगी, तुम मत आना। रिक्शे में बैठे हुए भी अधिकतर समय बाहर देखती रहती हैं। कभी-कभी मैडम को देख कर ही लगता है कि रात जागते काटी हैं या रोती रही हैं, जो भी हो उनके घर की बातें होंगी, मैं क्या जानूँ!

लेकिन मैं क्या बताऊँ, कल ऐसा लगा कि गुस्सा तो मैडम में भी बहुत है। उसने बस मैडम को घूरा था। हो सकता है कोई भद्दा इशारा भी किया हो, आजकल के लफंगे उम्र और रुतबे का भी लिहाज़ नहीं करते। अच्छी पिटाई भी मिली उसे। मैंने भी लगा दिए दो हाथ। लेकिन सच कहता हूँ उसका सिर मैंने जान बूझकर नहीं फोड़ा। मुझे क्या पता था कि वह दीवार से टकरा जायेगा। एक हाथ ही तो लगाया था चेहरे पर।

आज सुबह मैडम के घर गया तो पता चला कि उन्होंने दूसरा रिक्शा लगवा लिया है। जो पैसे हुए थे वो भी मिल गए। खैर पैसों का क्या। हुनर है तो आते रहेंगे। बस ये फूली सरसो की खुशबू नाक में जाते ही छींक आने लगती है, इसका कोई इलाज है क्या?

4

हमारी बगिया में खूब बौर आये हैं। अब्बा आजकल खुश रहते हैं। कहते हैं फसल अच्छी रही तो अगले साल अंग्रेजी स्कूल में भेजेंगे। लेकिन मुझे कोई स्कूल अच्छा नहीं लगता। बस कला बनाना अच्छा लगता है। मैं जहां भी देर तक देखता हूँ, मुझे बहुत से चित्र नज़र आने लगते हैं। बादलों में, चाँद में, पेड़ों के तनों पर, फैली छांव में, मेरी छाया में, या पानी से भीगी दीवार और ज़मीन पर, मुझे कहानियां फैली नज़र आती हैं।

मेरे दोस्त मेरा मजाक बनाते हैं।

मैं पेन्सिल या ब्रश नहीं लेता, मेरी उंगलिया ही रंगो को बेहतर समझती हैं। स्कूल में कई बार लाइने और कटाव सीधा न होने पर टीचर से पिटाई भी मिलती है। लेकिन मुझे कभी कोई लाइन सीधी दिखती ही नहीं जो मैं सीधी बनाऊँ। एक बार बहुत कोशिश करके अब्बा की तस्वीर सीधी लाइनों से बनाया, देखते ही अब्बा हसने लगे, और थोड़ी देर बाद नाराज़ होकर चले गए।

अब्बा पहले ऐसे नहीं थे। जब मैं छोटा था तो अब्बा खूब बात करते थे। गर्मी की रातों में खुले आसमान के नीचे बिना चाँद पर अम्मी वाली कहानी सुनाये मैं उन्हें सोने नहीं देता था। कभी-कभी वो मुझे शहर भी ले जाते। या कहीं भी दावत हो, मुझे साथ ले जाते। लेकिन अब हमेशा मुझे दूर रखते हैं। कहीं भी साथ नहीं ले जाते। बात भी बस पढ़ाई और स्कूल तक ही करते हैं। और गलतियों पर बहुत डांटते हैं।

कल स्कूल से आते हुए उस आदमी की पिटाई देखने में मुझे देर हो गई। वो लोग उसे खूब मारे। लेकिन फिर उठाकर अस्पताल भी ले गए। उसका सर जैसे ही दीवार से टकराया, मुझे दीवार पर चित्र और कहानियाँ दिखने लगीं। पहले मुझे चिड़िया की चोंच दिखी, फिर बादल और बारिश जैसा, फिर आग की लपटें नज़र आयी, और फिर जैसे एक बड़ा सा लाल गुलाब दीवार पर खिल गया।

5

मैं अपने बाप की लिखी किताबें नहीं पढ़ता। उनका ग़ज़लों का संग्रह मेरी टेबल पर धरा रहता है। महीनों बीत जाते हैं। फिर मैं उसकी गर्द साफ कर देता हूँ और वैसे ही सजा देता हूँ। मुझे शायरी, कविताएँ समझ नहीं आतीं। इन ग़ज़लों में उनकी उस महबूबा का ज़िक्र है जो मेरी माँ नहीं है। असल में वह कोई भी नहीं है। अगर फ्रायड की माने तो यह सारी ग़ज़लें बस उनकी वह ख्वाहिशें हैं जो मेरी माँ पूरी नहीं कर सकीं। लेकिन मेरी निगाह में यह सरलीकरण उचित नहीं हैं। लोगों को समझना कुछ इतना आसान नहीं है। लोग अजीब होते हैं।

मुझे तो बस कहानियाँ पसंद हैं। क्योंकि ये हर जगह हैं, जिधर देखिये उधर कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं। मैं अक्सर उनसे कहता था, कहानियाँ तो हवा में तैरती मछलियों की तरह हैं, बस हाथ फैलाओ और पकड़ लो। इस पर वे खूब हंसती थीं।

हाँ कुछ कहानियाँ कही सुनी नहीं जाती, उन्हें बस जिया जा सकता है। या यूँ कहें कि हम जो जीते हैं वह भी बस एक कहानी है और हम सब अपनी-अपनी कहानी के पात्र हैं। ज़रा सोचिये, अगर एक ऐसी ही कहानी का पात्र कहानी से बहार निकल कर झाँकने लगे और इस कौतुहल में पड़ जाये कि अब आगे क्या होगा तो कहानी का क्या खूब रंग निखरेगा।

उन्हें भी यकीन था कि कभी न कभी मैं अपनी वह कहानी खोज लूँगा जिससे मुझे पूरी दुनिया में जाना जायेगा। वे चाहती थीं कि मैं वह कहानी ज़रूर लिखूं और उन्हें ही समर्पित करूँ। उनका कहना था कि मेरे इस सपने की आपूर्ति ही उनके लिए सबसे बड़ा तोहफा होगा। मैं खुद को कभी इस सपने के प्रति एकाग्र न कर सका, उनके साथ न उनके जाने के बाद। उनके जाने के बाद, जब मैं एक समय तक अवसाद का शिकार रहा, तब ज़रूर ऐसा लगता था कि शायद अब वह मछली पकड़ में आ गयी है। मुझे लगने लगा था कि मै स्वयं उस कहानी में एक पात्र की तरह उतर चूका हूँ। और फिर मैं उस कहानी से बहार झाँकने की कोशिश करने लगता।

आज भी मैंने कहानी से बाहर निकल कर झाँकने की कोशिश की लेकिन यह चिड़ियों का शोर मेरी जान ही लेकर मानेगा। जैसे ही वह कहानी मेरी गिरफ्त में आने को होती है, एक शोर सा उठने लगता है, जैसे सारी चिड़ियाँ मिलकर कोई विलाप कर रही हैं और वह डोर जो मुझे और मेरी कहानी को जोड़ती है इस शोर में कही डूब जाती है…

उसामा हमीद
अपने बारे में कुछ बता पाना उतना ही मुश्किल है जितना खुद को खोज पाना.