कहो लेखनी, क्या करोगी?

जब कोई किसी पथ पर
नहीं तोड़ती मिलेगी पत्थर
जर्जर गात मलिन से तेवर
तृषित चक्षु औ सख़्त कलेवर
सुखी छाती में फिर पय को
कैसे भ्रमित करोगी?

विह्वलता यदि मिले न मन को
हृदय न पाले आस मिलन की
आतुर यदि प्रतीक्षा न हो
धरती तके न राह गगन की
झरते सावन का नयनों में
कैसे बिम्ब गढ़ोगी?

चहुँ और बस लूट मची है
तांडव करती भूख बची है
ज्वाला में लिपटी हैं दिशाएँ
डगर न कोई शेष बची है
अनदेखा करके, श्रृंगार का
कैसे सृजन करोगी?

कहो लेखनी, क्या करोगी?!