“कहो! प्रेम है कितना?”
क्या हो
इस यक्ष प्रश्न का उत्तर?
कैसे कोई कह पाए ‘इतना’
प्रेम के अतिरिक्त जो भी है
प्राकृतिक, शाश्वत, कालातीत
है व्यक्त किसी न किसी पैमाने में
धरती का घनत्व, समुद्र का आयतन,
नभ की विरलता, जल की तरलता,
हवा की गति, सूर्य का ताप,
सबका का है कुछ न कुछ माप
पर कहाँ है
हृदय के आकर्षण, मन की आतुरता
विरह, विकलता की कोई इकाई?

प्रेम पर सापेक्षता का सिद्धांत भी लागू नहीं
नहीं बता सकते प्रेम लैला से ज़्यादा,
रोमियो से कम कि फ़रहाद के बराबर है
वो सब भी तो बस क़िस्से कहानी में दर्ज हैं
प्रेम का नहीं कोई विश्व रिकॉर्ड
कोई आंकड़े, सांख्यकी, खाता-बही
जिससे ज्ञात हो सके प्रेम की पराकाष्ठा,
प्रेम की कोई प्रतियोगिता, कोई ईनाम नहीं,
चूँकि होती प्रेम में जीत-मात नहीं

प्रेम की कोई भाषा, कोई भूगोल नहीं होता
प्रेम का कोई गणित, कोई विज्ञान भी नहीं होता
अगर कुछ होता है तो
प्रेम का बस इतिहास होता है

व्यक्ति, व्यक्तित्व से भी इसका, कोई सरोकार नहीं होता
तभी तो कृष्ण को बस राधा ही जी पायी
बुद्ध होकर भी जो सिद्धार्थ ने न जाना, यशोधरा जान गयी
क्रूर हिटलर के दिल की थाह, जोसेफिन ने पायी
साहिर जो न बूझ पाया, अमृता की वो तड़प
इमरोज़ को समझ आयी
प्रेम की वास्तविकता है कि ‘प्रेम है!’
चाहो तो है, न चाहो तो भी है
मानो तो है, न मानो तो भी है
समझो तो है, न समझो तो भी है
पा लो तो है, न पा सको तो भी है
प्रेम बस ‘है’
अब भी अगर जो पूछो ‘कितना?’, तो
‘जितना महसूस कर सको बस उतना!’