“स्वयं पर कलंक लेना भी प्रेम की एक परिभाषा है
राम ने जिस ‘कैकेयी’ को माफ़ कर दिया
समाज उसे क्यों नहीं माफ़ कर पाया?
इतिहास क्यों उसे निर्दयी और दोषित मानता रहा?
आज भी मान रहा है।
अपनी ही परिभाषा की परिकल्पना पर
अपने विचारों की निस्तब्ता ठोकता रहा?
यह इतिहास?”
“कैकेयी”
“एक विचार”
“प्यार की अलग ही एक परिभाषा”
“कैकेयी” (कविता)
कैकेयी, तुम्हें मेरी सम्वेदना समर्पित है
अश्रु भरी वेदना के सुमन अर्पित हैं
युगों से न जाना गया, न माना गया तुम्हें
कथा तुम्हारी कहाँ अब तक निरूपित है?
ईर्ष्या, द्धेष ओर प्रतिशोध से तुम परिपक्त थीं?
या फिर राम में तुम भी अनुरक्त थीं?
समाज का भग्न हृदय जान न पाया
ममता से तुम विभक्त या राम की परम भक्त थीं?
कैसा था तुम्हारा यह जीवन रथ?
प्रलय था संघर्ष का जिसमें पथ-पथ
जीने की उध्मय जिजीविषा लिए
आत्मा थी ग्लानि से लथपथ
वनवास की संरचना राम ने ही गढ़ी थी
रहस्य की तुम सबसे अहम कड़ी थीं
एक लड़ाई राम ने रावण के साथ लंका में
एक लड़ाई अवमानना की तुमने समाज से लड़ी थी
राम के रामत्व हेतु तुमने अपनी ममता को छोड़ दिया
कथा को उसके उद्देश्य के लिए अप्रत्याशित मोड़ दिया
क्षत विक्षत हृदय से तुमने
स्वाभिमान से अपना रिश्ता तोड़ दिया
पापिन, कलंकिनी का नाम सहज स्वीकार लिया
घृणा और अपमान का विष तूने क्षण-क्षण पिया
अनन्तकाल तक न भूला जाएगा ऐसा उदाहरण
कुमाता के कलंक को जीवन भर जिया
‘कैकेयी’ तुम कदापी निंदनीय नहीं हो..
‘कैकेयी’ तुम कदापी खण्डनीय नहीं हो..
इतिहास ने तुम्हारा चरित्र भले ही लहूलुहान कर दिया
वास्तव में ‘कैकेयी’ तुम सचमुच वंदनीय हो
…ऐसी साधना में बीत जाती हैं उम्र कई-कई
रिस जाते हैं उनमें अगण्य भाव कई-कई
सूख जाते हैं सदियों के समंदर कई-कई
बर्फ की सिलियाँ गल जाती हैं कई-कई
टूट जाते हैं अनन्तकालों से जमे पहाड़ कई-कई
तब जाकर बनती है कहीं एक ‘कैकयी’
राम तुम राम न होते
जो ‘कैकेयी’ की साधना के बाग़ न होते
राम तुम राम न होते
जो ‘कैकेयी’ के तप के अनुराग न होते
राम तुम राम न होते
जो ‘कैकेयी’ के त्याग के वनवास न होते
राम तुम जन मन में न बस्ते..
राम तुम राम न होते
स्वयं पर कलंक लेना भी
प्रेम की एक परिभाषा है
पवित्र प्रेम की परिकल्पना है
कैकेयी… कैकेयी… कैकेयी…