‘कुछ गद्य, कुछ पद्य’ से
अनुवाद: महेन्द्र मिश्र

निर्वासित जीवन के बीस साल मैंने कई देशों में काटे हैं। प्रत्येक देश का जीवन
अपनी तरह का था। भारत में बिताया जीवन यूरोप और अमेरिका के जीवन से भिन्न था। इस देश में अपने सिर की क़ीमत धारण करनी पड़ी है बहुत बार, मेरे ऊपर शारीरिक आक्रमण हुआ, मेरी किताबें निषिद्ध हुईं, सरकारी और ग़ैरसरकारी सब तरह के लोगो ने—मेरा लेखन उन्हें पसन्द नहीं है इसलिए मुक़दमे दायर किए। मुझे एक प्रदेश से, यही नहीं पूरे देश से भी एक बार भगा दिया गया। लेकिन इसी देश में ही मेरे पाठकों की संख्या बहुत बड़ी है। जिस तरह इस देश के लोग मुझे मार डालना चाहते हैं, उसी तरह प्रेम भी करते हैं। मुझे जो चाहते हैं, वे अत्यन्त साधारण जनगण हैं। इस देश में जिस तरह आनन्द की अनुभूति है, उसी तरह भय का भाव भी है। पाश्चात्य जगत् में कुछ भी नहीं है। न आनन्द, न भय और यदि हो भी तो वह अनुभूति इतनी तीव्र नहीं है।

लेकिन फिर भी इतना ख़तरा उठाकर किस वजह से इस देश में रहती हूँ। यह एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा था। मैंने उत्तर दिया था, यहाँ के पेड़ों के नाम जानती हूँ। सच तो है।

यह देश ख़ूब अपना-अपना-सा लगता है। इतनी जो नफ़रत मिली है मुझे और इतने आघात, उसके बावजूद बहुत-से लोग पूछते हैं, कैसे काटती हो दिन! दिन तो गुज़र जाते हैं। हज़ारों काम हैं, उनको करने का भी समय नहीं है मेरे पास। हज़ारों किताबें हैं, उनको पढ़ने का समय नहीं है। यदि पढ़ने लगें तो लिखना नहीं होता और लिखने बैठूँ तो पढ़ना नहीं हो पाता। जीवन-भर ये जो इतनी किताबें ख़रीदी हैं, इन्हें कब पढूँगी यह सोचकर शरीर सिहर उठता है। एक जीवन में इतना सब कुछ सम्भव नहीं है। हाँ, जीवन यदि कम से कम दो हज़ार बरस लम्बा होता!

कभी-कभी सोचती हूँ कि जीते रहने का भी क्या प्रयोजन है। जब जिसकी मरने की इच्छा हो तो शरीर के किसी एक अंग के गुप्त बटन को दबाते ही वह मर जाए, और जिसकी इच्छा होगी कि वह न मरे तो एक लाख वर्षों तक जीवित रहे। विज्ञान ने तो बहुत-से अमरत्व के उपायों का अविष्कार कर डाला है। लेकिन मेरे ज़िन्दा रहने पर वह सब सम्भव नहीं है, इतना तो जानती हूँ। मर जाऊँगी लेकिन उसके बाद भी मेरी ख़ूब इच्छा है कि जीवित रहूँ। विश्व ब्रह्माण्ड में कितना कुछ घटेगा वह सब मैं और नहीं देख पाऊँगी, यही सोचकर बहुत तकलीफ़ होती है।

भारतवर्ष में कमरे में बैठकर लिखने-पढ़ने का काम मेरा मूल कार्य है। लेकिन मूल कार्य है इस कारण, वह सब काम मैं बराबर करती रहती हूँ या करते रहने की इच्छा होती है मेरी, वैसा तो नहीं है। यूरोप और अमेरिका में घर का काम सब अकेले करना पड़ता था। यहाँ तो घर पोंछने, खाना पकाने और बर्तन माँजने के लिए किसी को रखा जा सकता है। इससे शायद अपने लेखन के लिए ज़्यादा समय मिल जाता है। लेकिन बराबर लिखते रहने का भी मन नहीं करता। दिल्ली में घर से बाहर जाने की ज़्यादा जगहें नहीं हैं। न्यूयॉर्क में, सड़क पर पैदल चलूँगी, शुद्ध हवा में मुक्त साँस लूँगी, ब्रॉड वे का म्यूज़िकल देखूँगी, लिंकन सेंटर जाऊँगी, बढ़िया कैफ़े में बैठूँगी, ख़ूब अच्छे रेस्टोरेंट में खाना खाऊँगी। उस तरह का जीवन यहाँ, भारत में सम्भव नहीं है। बाहर की हवा में प्रदूषण है। पैदल घूमने का कोई उपाय नहीं, बाहर निकलूँ तो फेफड़ों में इंफ़ेक्शन हो जाता है। भारत से बाहर मज़े से घर से बाहर निकलना होता है। प्रायः बहुत-से कार्यक्रमों में भाषण देने यूरोप, अमेरिका जाना पड़ता है। मूल रूप से मानवता, नारी स्वाधीनता इत्यादि विषयों पर बोलने के लिए आमन्त्रण आते हैं।

भाषण देती हूँ लेकिन लम्बे समय तक कहीं भी कविता पाठ करना नहीं हो पाता। बंगाल में रहते समय ख़ूब होता था। कभी-कभी कोलकाता से कुछ बंगाली मेरे घर आते हैं। दिल्ली के भी दो-एक जन बंगाली आते हैं, तब यदि कविता का परिवेश बन जाता है तो कविता सुनाती हूँ।

इसके अलावा विदेश में, साहित्यिक कार्यक्रमों में, अंग्रेज़ी कविता-पाठ के साथ ही बीच-बीच में बांग्ला कविता की आवृत्ति भी करती हूँ। केवल विदेशियों को बांग्ला भाषा का स्वर सुनाने के उद्देश्य से। वे लोग सुनना चाहते हैं इसलिए। कविता, जैसे-जैसे दिन बीतते हैं, जीवन से दूर होती जा रही है। बहुत दिन बाद इस बार एक कविता की पुस्तक लिखूँगी, ऐसा सोचा था। लेकिन कविताओं की संख्या इतनी कम है कि वह पुस्तक नहीं बन पाती। कविता आजकल आती नहीं है मेरे पास। कविता तो स्वयं आने वाली चीज़ है, वह लिखने की चीज़ नहीं।

दिल्ली में एक काम तो ख़ूब होता है। बहुत-सी मछली ख़रीदना। देशी मछली विदेश में बरफ़ में जमी हुई ख़रीदनी होती है, यहाँ वह ताज़ा मिलती है। बंगाली का मछली-भात न होने से चलता नहीं है। दिल्ली, कोलकाता तो नहीं है। दिल्ली में बंगाली मोहल्ले में मछली मिलती तो ज़रूर है किन्तु सब तरह की मछली नहीं मिलती। दिल्ली के बंगाली मोहल्ले को कोलकाता का मानिकतला अथवा गड़ियाहाट मानना निश्चित रूप से भूल होगी। एक बार में ही बहुत-सी मछली ख़रीदकर फ़्रिज में रख देती हूँ। उसे धीरे-धीरे खाती हूँ। लेकिन मैं कितना खा सकती हूँ! अधिकतर मैं दूसरों को खिलाती हूँ। कुछ ऐसे लोग होते हैं जिन्हें दूसरों को खिलाना बहुत अच्छा लगता है। मैं उसी जाति की इंसान हूँ। बढ़िया हिलसा ख़रीदूँगी, चीतल और चिंगड़ी ख़रीदूँगी तो अकेले खाना मुझसे नहीं होता। मुझे लोगों को बुलाना पड़ता है। सब खिलाना होगा उनको। मेरे हिस्से में कुछ न भी पड़े तो कोई बात नहीं। जब कोलकाता में थी तो मेरे घर का दरवाज़ा सबके लिए खुला रहता था; जो कोई आता, मेरे घर खाता। दोपहर के वक़्त या रात होने पर आने वाला मेरे घर से कोई व्यक्ति बिना खाए चला जाए, ऐसा कभी नहीं हुआ। चाहे वे बिन बुलाए मेहमान ही क्यों न हो। ऐसा आतिथ्य सत्कार मैंने किससे सीखा? निश्चय ही अपनी माँ से।

बहुत-से लोगों का ख़याल है कि मेरा परिवार क्योंकि पति और सन्तान वाला परिवार नहीं है इसलिए निश्चित रूप से मैं बहुत एकाकीपन महसूस करती हूँ। मैं अकेली रहती हूँ किन्तु इसका अर्थ यह तो नहीं कि मैं अकेलेपन की शिकार हूँ। यह बात सौ बार समझाने पर भी लोग समझना नहीं चाहते। मैं लिखती हूँ, मैं पढ़ती हूँ, मैं सोचती हूँ, कल्पना करती हूँ। ये सब लेकर ही तो व्यस्त रहना होता है मुझे। यह सब लेकर किसी के व्यस्त रहने की बात, ख़ासतौर से स्त्री जाति की व्यस्तता की बात, अधिकांश लोग समझते नहीं हैं। आम धारणा है कि लिखने का काम अर्थात् बुद्धि का काम पुरुषों के लिए उचित है, स्त्रियों के लिए नहीं। मैं लिखती हूँ, पढ़ती हूँ या सोचती हूँ उससे लोग उतने प्रभावित नहीं होते। वे प्रभावित होंगे अगर मैं कहूँ, मैं खाना पकाती हूँ। खाना पकाना स्त्रियों का सबसे बड़ा प्रतिभा का काम है, ऐसा आज भी माना जाता है।

मैं खाना बिल्कुल नहीं पकाती ऐसा भी नहीं है। अक्सर ही पकाती हूँ। ख़ासतौर पर ख़ूब अच्छी मछली यदि हो। मछली और माँस खाती हूँ ज़रूर किन्तु साग-सब्ज़ी बहुत खाती हूँ। शाकाहारी जितना साग-सब्ज़ी खाते हैं उससे कहीं अधिक। साग-सब्ज़ी ख़ुद ख़रीदकर लाती हूँ। सच कहूँ तो इस शहर के मछलीवाले, सब्ज़ीवाले, चायवाले मेरे दोस्त हैं। कोलकाता में भी थे मछलीवाले, सब्ज़ीवाले, टोकरीवाले। वे लोग दीदी-दीदी बोलकर मुझे घेर लेते। दरअसल हमेशा देखा है मैंने, देश में, विदेश में—सभी जगह साधारण इंसान ही मेरे दोस्त हैं। बहुत बड़े लोगों के साथ मेरी ठीक बनती नहीं।

मैं जानती हूँ कि कोलकाता और दिल्ली में पार्टियाँ ख़ूब होती हैं। कोलकाता में कुछ लोगों ने मुझे आमंत्रित किया था। वहाँ जाकर देखा, मुझे कुछ अच्छा नहीं लगा। पार्टी-वार्टी मेरे लिए नहीं है। जल्दी जाकर जल्दी घर लौट आने की मैं पक्षधर हूँ। किन्तु बाक़ी लोग तो वैसे नहीं हैं। वे तो देर रात पार्टी में जाते हैं, शराब पीते हैं और खा-पीकर घर लौटते-लौटते अक्सर सुबह कर देते हैं। मैं मद्यपान नहीं करती और नशे में चूर लोगों के साथ तर्कहीन, बुद्धिहीन वार्तालाप करते रहना मुझे अच्छा नहीं लगता। दिल्ली में मुझे किसी भी पार्टी से बुलावा नहीं आता। बड़े लोगों के घर में अंग्रेज़ी बोलने वालों की इलीट श्रेणी की पार्टी मुझे अच्छी नहीं लगती। और मध्यवर्गीय लोगों के साथ भी, क्योंकि मेरी मानसिकता मध्यवित्त वर्ग की नहीं है, इसलिए मेरी नहीं पटती। ग़रीबों की बस्तियों के साथ भी मेरा पासंग नहीं बैठता। दरअसल मैं इनमें से किसी भी श्रेणी में नहीं आती। मैं तो श्रेणी या वर्ग की धारणा को ही पसन्द नहीं करती। मैंने लक्ष्य किया है कि मुझमें किसी भी वर्ग का चरित्र नहीं है।

सोचती हूँ मैं सभी वर्गों से बाहर एक व्यक्ति हूँ। यह तो होगा ही यदि मैं धर्म से बाहर का व्यक्ति होऊँ। पुरुष प्रधान संस्कृति से बाहर का व्यक्ति होऊँ, तब तो यह स्वाभाविक ही है कि मेरी वैयक्तिक सत्ता समाज से बाहर है—मैं समाज से बाहर का प्राणी हूँ। जहाँ भी रहती हूँ समाज से बाहर के व्यक्ति की हैसियत से ही मैं जीती हूँ। किन्तु यह आसान नहीं है, इस तरह से जीते रहना। किन्तु यह मुश्किल काम ही मैं दिनों-दिन कर रही हूँ।

अपने देश से कितनी दूर, और समस्त बंगाल से कितनी दूर। आत्मीय अपना कोई नहीं। दोस्त भी नहीं, बराबर लिखने को मन भी नहीं करता। एक बिल्ली मेरे पास रहती है। कभी-कभी लगता है बिल्ली मनुष्य से कहीं बेहतर है।

मगर हठात् कभी किसी इंसान के सामने दिल खोलने का जी करता है। कोई भी इंसान, भला इंसान, बुद्धिदीप्त इंसान, जिसके साथ किसी भी विषय पर बात की जा सके। किन्तु ऐसा व्यक्ति है कहाँ? अधिकांश लोग तो होते हैं धर्म में विश्वास करने वाले, बुरे संस्कारों से घिरे, स्त्री से नफ़रत करने वाले, पुरुषप्रधान व्यवस्था के पक्षधर, स्वार्थी, कूपमंडूक। इस तरह के लोगों के साथ यदि सम्वाद करना हो और मैं वैसा करती रहूँ, वह मेरे द्वारा सम्भव नहीं है।

उसमें समय बर्बाद न करके अगर लिखने-पढ़ने का काम किया जाए तो अच्छा है; या ट्वीट करना अच्छा है। ट्वीट करने के लिए सोचना पड़ता है। एक-एक ट्वीट, एक निबन्ध हो सकता है। ट्वीट में बुद्धिमान लोगों के साथ विचार विनिमय होता है। मैंने समझा है मन्दबुद्धि लोगों के साथ आमने-सामने बातचीत करने में समय नष्ट करने के बजाय सोशल नेटवर्किंग बहुत अच्छा है। थोड़े समय में ही दुनिया के बहुत-से समाचार और ज्ञान तथा भिन्न-भिन्न मतों की जानकारी मिलती है। अपना मत भी अभिव्यक्त किया जा सकता है। कोई सेंसरशिप नहीं, निषेधाज्ञा नहीं।

ट्विटर, फ़ेसबुक, ब्लॉग, मेरे लिए बहुत ज़रूरी हैं। क्योंकि मेरा लेखन तो रोज़ ही निषिद्ध होता रहता है।

किन्तु विभिन्न विषयों पर मेरा मत, अधिकांश मौक़ों पर और सबकी अपेक्षा जो मेरा भिन्न विचार है, इंटरनेट से बाहर उसे अभिव्यक्त करने की कहीं कोई जगह नहीं है। कोई अपना लिखा डर के कारण नहीं छपवाना चाहता। छपने पर उन्हें डर लगता है कि सरकार नाराज़ होगी। क्योंकि सरकार हमेशा मुस्लिम रूढ़िवादियों को ख़ुश करना चाहती है। मुझे जिस कारण से रूढ़िवादी शत्रु समझते हैं, उसी कारण मेरे लेखन को छापकर वे रूढ़िवादियों को नाराज़ नहीं करना चाहते। ब्लॉग लिखती हूँ अंग्रेज़ी में। नो कंट्री फ़ॉर विमेन। बांग्ला में भी लिखती हूँ। नाम है मुक्तचिन्ता।

एकमात्र ब्लॉग ही बिना सेंसर के चलते हैं। पत्रिका में छपने वाले लेख इत्यादि ऐसे नहीं होते। आजकल तो मुझे यह कहकर सतर्क किया जाता है कि धर्म शब्द का ‘ध’ भी मेरे किसी लेख में न रहे। कहीं भी धर्म को लेकर कोई भी राय नहीं दी जा सकती। किन्तु ब्लॉग में अभी भी अबाध स्वाधीनता है। प्रतिदिन ही ट्वीट करती हूँ, प्रायः रोज़ ही ब्लॉग लिखती हूँ, प्रति सप्ताह दो-तीन कॉलम लिखती हूँ, और बीच-बीच में कभी कविता, और कभी कहानी। कुछ दिन बाद एक नया उपन्यास शुरू करूँगी। दिन गुज़र जाता है। रात भी कट जाती है। ट्वीट के लिए भी दो मुक़दमे दायर हो चुके हैं। बिहार, और उत्तरप्रदेश में। अपने विचार व्यक्त करने की स्वाधीनता क्या है, यह यहाँ के अधिकांश लोग नहीं जानते। कुछ दिन पहले पश्चिम बंगाल में मेरे एक मेगा सीरियल शुरू होने की बात हुई थी। किन्तु पुलिस भेजकर सरकार द्वारा धमकी दी गयी कि टी.वी. चैनल में यदि इस मेगा सीरियल का प्रसारण हुआ तो मानो सर्वनाश हो जाएगा। सर्वनाश के भय से वह चैनल अब वह सीरियल नहीं दिखाता।

रात में जागकर लिखती हूँ। बीच-बीच में लगता है, लगभग चालीस पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं, तो इस बार निकल पड़ना होगा पृथिवी के पथ पर। बाक़ी जीवन में घर बैठे लिखते रहने पर दुनिया को देखना तो होगा नहीं। ‘हूट’ करके एक दिन मर जाऊँगी। विशाल जगत् में बहुत कुछ देखना बाक़ी है। वह सब बिना देखे ही मर जाऊँगी, ऐसा मैं नहीं सोच पाती। अपना कोई देश नहीं है। अपना घर नहीं। दूसरे के फ़्लैट में रहती हूँ। किसी भी दिन कोई मुझे मार डालेगा अथवा कभी भी सरकार यहाँ से भगा देगी। जीवन का कोई ठिकाना नहीं है। न हो। जहाँ भी रहूँ, जिस देश में भी, मैं लिखूँगी अपने मन की बात। इसलिए कि मेरी बातें स्त्रियों को अपने अधिकारों को लेकर अपना सिर ऊँचा रखकर स्वाधीनता से जीने की प्रेरणा देती हैं। जीवन की सार्थकता तो इसी में है। एक जीवन में बहुत-से पुरस्कार मिल गए। बहुत-सा प्रेम, श्रद्धा भी मिली; और मैं कुछ नहीं चाहती। जो नफ़रत मुझे मिली है, वह निश्चित रूप से इसलिए कि मैंने कुछ अच्छी बातें कही हैं।

धार्मिक रूढ़िवादी और नारीविरोधी प्रतिगामी शक्ति की घृणा का पात्र होना भी तो बहुत बड़ा पुरस्कार है।

दिल्ली से किसी अन्य शहर या राज्य में जाने का कोई उपाय नहीं है। क़दम-क़दम पर निषेधाज्ञा है। कहाँ जाने पर फिर कौन-सी दुर्घटना घटेगी, किसे मालूम है। दिल्ली में अच्छी लगने वाली जगहें बहुत नहीं है। सबसे अच्छा लगता है जनपथ के क़रीब सड़कों पर बन्दरों को केला खिलाना। बहुत-से केले ख़रीदकर खिलाती हूँ। कितना अच्छा लगता है उनका ख़ुश चेहरा देखना। सड़क पर भिखारियों को देखकर तकलीफ़ होती है। उनको कुछ पैसे देती हूँ। किन्तु मेरे पैसे से क्या उन सबकी दुर्दशा दूर होगी? सपना देखती हूँ कि सारी पृथिवी का मानव समाज सुखी है, किसी का कोई अभाव नहीं है और कहीं भी कोई विषमता नहीं है। स्वप्न देखती हूँ दिन-रात। मानचित्रहीन एक पृथिवी का स्वप्न देखती हूँ। जिसकी जहाँ जाने की इच्छा हो, वहाँ वह जा सकेगा। यद्यपि मेरे क़दम-क़दम पर बाधा है। दिल्ली में चौबीस घण्टे मेरे लिए पुलिस का पहरा रहता है। पुलिस का पहरा मुझे अच्छा नहीं लगता। मानवजाति का प्रेम ही यदि मेरी सुरक्षा का साधन होता!

इस शहर में रहती हूँ। किन्तु शहर या देश के नाम पर मेरे पास अभी ईंट-काठ
और पत्थर का घर नहीं है, और न कोई मानचित्र। देश या घर मेरे लिए इंसान हैं, ऐसे इंसान, जो मुझे प्रेम करते हैं अथवा जिन्हें मैं प्रेम करती हूँ।

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