हर मौसम तेरी यादों का मौसम लगता है
मैं तुझसे बचना चाहूँ भी तो कैसे

तन्हाइयों में भी हरदम हमराह तू ही होता है
तेरे साये से दूर जाऊँ भी तो कैसे

सजाये ख़्वाब जब तेरे ख़ुद अपनी ही नींदों में
अब अपने रतजगों से घबराऊँ तो कैसे

गूँथ ली हर याद उसकी अपनी चोटी में
क़ि अब मैं ज़ुल्फ़ बिखराऊँ तो कैसे

चुना क़िस्मत ने जब ये स्याह ही मेरे लिए
मैं किसी और रंग को अपनाऊँ तो कैसे

घिरी हो रूह ही जब उन क़यामत बाँहों में
महज़ मैं ज़िस्म लेके अब कहीं जाऊँ तो कैसे!