‘Kal Milo Toh’, a poem by Dharmpal Mahendra Jain
कल मिलो तो साथ लाना
माटी की वो ही महक
जो तुम्हारी, बस तुम्हारी है
पारिजात फूलों की सुगंध,
तुम-सी नहीं लगती।
कल मिलो तो बाल वैसे ही भले
कहीं उलझे, कहीं बिखरे
अभिजात्य केशों में
उंगलियाँ नहीं फँसतीं, नहीं चलतीं।
कल मिलो तो रंग पानी का
तुम्हारी आँख पर हो
नर्म पलकों पर सजावट
अच्छी नहीं लगती।
कल मिलो तो होंठ सूखे
हों अ-रंगे, अ-कृत्रिम
लिपिस्टिकी अनुभूतियाँ
कुदरती नहीं लगतीं।
कल मिलो तो गोधूलि-सा चेहरा मद्धम
मुस्कुराता, हो बुलाता
बनावटी आभा वहाँ,
अपनी नहीं लगती।
कल मिलो तो शाम में हो
शाम की आवारगी
कॉकटेली थिरकनें
मन की नहीं लगतीं।
कल मिलो तो तुम मिलो
जैसे मिलीं पहले-पहल
अप्सरा बनीं तुम प्रिया
उत्सव नहीं लगतीं।