‘Kal Milo Toh’, a poem by Dharmpal Mahendra Jain

कल मिलो तो साथ लाना
माटी की वो ही महक
जो तुम्हारी, बस तुम्हारी है
पारिजात फूलों की सुगंध,
तुम-सी नहीं लगती।

कल मिलो तो बाल वैसे ही भले
कहीं उलझे, कहीं बिखरे
अभिजात्य केशों में
उंगलियाँ नहीं फँसतीं, नहीं चलतीं।

कल मिलो तो रंग पानी का
तुम्हारी आँख पर हो
नर्म पलकों पर सजावट
अच्छी नहीं लगती।

कल मिलो तो होंठ सूखे
हों अ-रंगे, अ-कृत्रिम
लिपिस्टिकी अनुभूतियाँ
कुदरती नहीं लगतीं।

कल मिलो तो गोधूलि-सा चेहरा मद्धम
मुस्कुराता, हो बुलाता
बनावटी आभा वहाँ,
अपनी नहीं लगती।

कल मिलो तो शाम में हो
शाम की आवारगी
कॉकटेली थिरकनें
मन की नहीं लगतीं।

कल मिलो तो तुम मिलो
जैसे मिलीं पहले-पहल
अप्सरा बनीं तुम प्रिया
उत्सव नहीं लगतीं।

धर्मपाल महेंद्र जैन
टोरंटो (कनाडा) जन्म : 1952, रानापुर, जिला – झाबुआ, म. प्र. शिक्षा : भौतिकी; हिन्दी एवं अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर प्रकाशन : छः सौ से अधिक कविताएँ व हास्य-व्यंग्य प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, आकाशवाणी से प्रसारित। 'कुछ सम कुछ विषम', और ‘इस समय तक’ कविता संकलन व 'इमोजी की मौज में', "दिमाग़ वालो सावधान" और “सर क्यों दाँत फाड़ रहा है?” व्यंग्य संकलन प्रकाशित। संपादन : स्वदेश दैनिक (इन्दौर) में 1972 में संपादन मंडल में, 1976-1979 में शाश्वत धर्म मासिक में प्रबंध संपादक। संप्रति : सेवानिवृत्त, स्वतंत्र लेखन। दीपट्रांस में कार्यपालक। पूर्व में बैंक ऑफ इंडिया, न्यू यॉर्क में सहायक उपाध्यक्ष एवं उनकी कईं भारतीय शाखाओं में प्रबंधक। स्वयंसेवा : जैना, जैन सोसायटी ऑफ टोरंटो व कैनेडा की मिनिस्ट्री ऑफ करेक्शंस के तहत आय एफ सी में पूर्व निदेशक। न्यू यॉर्क में सेवाकाल के दौरान भारतीय कौंसलावास की राजभाषा समिति और परमानेंट मिशन ऑफ इंडिया की सांस्कृतिक समिति में सदस्य। तत्कालीन इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ बैंकर्स में परीक्षक।