कल से डोरे डाल रहा है
फागुन बीच सिवान में,
रहना मुश्किल हो जाएगा
प्यारे बंद मकान में।
भीतर से खिड़कियाँ खुलेंगी
बौर आम के महकेंगे,
आँच पलाशों पर आएगी
सुलगेंगे कुछ दहकेंगे,
घर का महुआ रंग लाएगा
चूना जैसे पान में।
रहना मुश्किल हो जाएगा
प्यारे बंद मकान में।
फिर अधखुली पसलियों की
गुदगुदी धूप में बोलेगी,
पकी फ़सल-सी लदी ठिठोली
गली-गली फिर डोलेगी,
कोहबर की जब बातें होंगी
ऊँगली दोनों कान में।
रहना मुश्किल हो जाएगा
प्यारे बंद मकान में।
रात गए पुरवा के झोंके
सौ आरोप लगाएँगे,
सारस जोड़े ताल किनारे
लेकर नाम बुलाएँगे,
मन-मन भर के पाँव पड़ेंगे
घर-आँगन दालान में।
रहना मुश्किल हो जाएगा
प्यारे बंद मकान में।
कैलाश गौतम की कविता 'गाँव गया था, गाँव से भागा'