भ्रष्ट करता है कला को, कला को
बेहतर करने का हर प्रयास।
कला को नहीं दरकार विषय,
विशेषण या विश्लेषण।
कला के हर भ्रष्ट स्वरूप में है
एक छोटा-सा सत्य का अंश।
सिले अधरों से देखता
सुनता, चखता, निहारता
किसी रचनात्मक कृति को,
उसके सादा आवरण की
परत दर परत उतारता
जटिलताओं को बूझता,
खंगालता हुआ सत्य
कोई भी मनुष्य
कला है।