हम में से किसी कलाकार को यह दावा करने का हक़ नहीं है कि वह एक अद्वितीय व्यक्ति है और ईश्वर ने उसे विशेष वरदान देकर इस संसार में भेजा है। उसे सिर्फ़ इतना ही कहने का हक़ है कि उसका सौभाग्य है कि उसे अभिव्यक्ति के मौक़े मिले हैं, जो हमारे देश में प्रत्येक व्यक्ति को नहीं मिलते।
‘कलाकार पैदा होता है, बनाया नहीं जाता।’ यह सिद्धान्त पेश करने का मतलब कुछ गिने-चुने मनुष्यों को साधारण मनुष्यों से ऊँचा होने का अधिकार देना है, जिस तरह कि हिटलर ने आर्य जाति को काली और पीली जातियों से ऊँचा होने का अधिकार दिया था। कोई भी सच्चा लोकवादी कलाकार इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं कर सकता।
अब सवाल उठता है- क्या संसार में हरेक व्यक्ति अभिनेता बन सकता है?
यह बहुत ही मुश्किल सवाल है और इसका जवाब विस्तार के साथ दिया जा सकता है। यहाँ मैं सिर्फ़ यही कहूँगा कि जिस हद तक हर आदमी शिक्षा पाकर इंजीनियर बन सकता है, सर्जन या हवाई जहाज़ का पायलट बन सकता है, उसी हद तक वह अभिनेता, कवि या चित्रकार भी बन सकता है। हाँ, यह बात उसकी रुचि, मेहनत, लगन और परवान चढ़ने के लिए ज़रूरी हैं। आजकल ऐसी परिस्थितियाँ हैं कि कोई बनना चाहता है कवि, तो उसे बनना पड़ता है इंजीनियर, और जो इंजीनियर बनना चाहता है, उसे कुछ और बनना पड़ता है। ऐसी परिस्थितियों में हम कैसे जान सकते हैं कि हम जो काम कर रहे हैं, हम उसी के लिए पैदा हुए थे? अगर सामाजिक परिस्थितियाँ अनुकूल हों, तो दावे के साथ कहा जा सकता है कि जो व्यक्ति अभिनय-कला सीखना चाहता है, वह उसे सीख सकता है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति अभिनेता बनना ही पसन्द करेगा, या सभी अभिनेताओं में एक-जैसी ही निपुणता आ जाएगी। न सभी कवि एक स्तर के हो सकते हैं, न सभी डॉक्टर, और न ही सभी अभिनेता।
जिस समय हमारा सामाजिक ढाँचा सच्चे न्याय और बराबरी की बुनियादों पर खड़ा होगा, तब मनुष्य के हर काम की एक-सी इज़्ज़त होगी। तब उसमें हर काम कलात्मक ढंग से करने की लालसा पैदा होगी और कोई अपने आपको पैदायशी तौर पर बड़ा या छोटा नहीं समझेगा।
सो मेरे ख़याल में, अगर हम चाहते हैं कि हमारे देश में नाट्य-कला फिर से जागृत हो, तो पहले हमें इस ग़लत धारणा का पूर्ण रूप से खण्डन करना होगा कि कलाकार पैदा भी होता है और बनाया भी जाता है।
नाटक-कला एक सामूहिक कला है। केवल एक व्यक्ति नाटक नहीं खेल सकता। नाटक खेलने के लिए काफ़ी बड़ी व्यवस्था की ज़रूरत होती है। इस व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति को काफ़ी हद तक अपने अहम को छोड़ना और अनुशासन स्वीकार करना पड़ता है। अगर प्रत्येक व्यक्ति ख़ुद को दूसरों से ऊँचा, प्रतिभावान और जन्मजात कलाकार समझने लगे, तो नाटक-मण्डली कभी भी सफल नहीं हो सकती।
मुझे कई नाटक-मण्डलियों का अनुभव है और मैं विश्वस्त रूप से कह सकता हूँ कि इन मण्डलियों के विकास के रास्ते में ‘जन्मजात कलाकार’ होने का सिद्धान्त बहुत बड़ी रुकावट डालता है।
प्रायः देखा जाता है कि इन नाटक-मण्डलियों के लोगों को रंगमंच पर काम करने का शौक़ तो बहुत होता है, लेकिन रंगमंच के पीछे होने वाले कामों में कोई दिलचस्पी नहीं होती। उन कामों को वे घटिया समझते हैं और अपने अभिनय को ही नाटक की सफलता का कारण मानते हैं।
नाटक देखने वाले जानते हैं कि नियत समय पर पर्दे का गिरना या उठना नाटक के लिए कितना महत्त्वपूर्ण होता है। कई बार पर्दा कुछ सेकण्ड पहले या बाद में गिरने से सारा दृश्य ख़राब हो जाता है। वास्तव में अभिनेताओं की तरह पर्दा भी अभिनेता है, जिसकी बागडोर अदृश्य कलाकार के हाथ में होती है। लेकिन कई नौसिखिया नाटक-मण्डलियों में शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जो पर्दा लगाने, उठाने और गिराने की कला सीखना चाहता हो। हाँ, किसी-न-किसी पात्र की भूमिका करने के लिए हर कोई प्रयत्न करता है। ‘मुझे ज़रूर पार्ट दीजिए। मुझे तो बचपन से ही एक्टिंग का शौक़ है।’ यह शब्द आमतौर पर सुनने में आते हैं।
जब कोई व्यक्ति ख़ुद को जन्मजात कलाकार समझ लेता है, तो उसके अन्दर शिथिलता आ जाती है। वह अपनी कमज़ोरियों की ओर ध्यान नहीं देता और हर समय अपनी विशेषताओं को ही देखता रहता है। वह अपनी आलोचना न ख़ुद कर सकता है, न ही किसी दूसरे के मुँह से सुन सकता है। अगर दर्शकों को उसका काम पसन्द न आए, तो वह कहता है, “मेरी कला को समझने और परखने की योग्यता लोगों में अभी पैदा नहीं हुई है। वास्तव में महान कलाकारों को प्रायः उनकी मौत के बाद ही पहचाना जाता है।”
अगर उसके साथी उसकी आलोचना करें, तो वह कहता है, “वे मुझसे ईर्ष्या करते हैं।”
अगर उसे रिहर्सलों पर ठीक समय पर आने के लिए कहा जाए, तो वह कहता है, “अरे छोड़िए, इन रिहर्सलों में क्या पड़ा है? एक्टिंग होती है प्रेरणा के साथ।”
प्रेरणा जन्मजात कलाकारों को कहाँ से मिलती है? यह उसे पता नहीं है और न ही वह पता करना चाहता है। वह समझता है कि जिस प्रकार कला उसे माँ के दूध के साथ मिली है, उसी प्रकार प्रेरणा किसी सातवें आसमान से मिल जाएगी। प्रेरणा न हुई, आकाशवाणी हो गई। और अगर कभी प्रेरणा कहीं अटक गई, तो ख़ुद को ‘जीनियस’
समझने वाला वह जन्मजात कलाकार उसे शराब के जाम पीकर बुलाने की कोशिश करता है और अगर वह जीनियस प्रगतिशील विचारों का व्यक्ति है, तो शराब के साथ ‘इंक़लाब’ की कल्पना करके प्रेरणा को बुलाता है। लेकिन ये साधन प्रेरणा को दूर भगाने के हैं, निकट लाने के नहीं। असली साधन है अपने ‘जीनियसपन’ का त्याग करना और पूरी लगन और नम्रता के साथ कला को सीखना।