ढंगों और दंगों के इस महादेश में
ढंग के नाम पर दंगे ही रह गए हैं।
और दंगों के नाम पर लाल ख़ून,
जो जमने पर काला पड़ जाता है।
यह हादसा है,
यहाँ से वहाँ तक दंगे,
जातीय दंगे,
साम्प्रदायिक दंगे,
क्षेत्रीय दंगे,
भाषाई दंगे,
यहाँ तक कि क़बीलाई दंगे,
आदिवासियों और वनवासियों के बीच दंगे
यहाँ राजधानी दिल्ली तक होते हैं।
और जो दंगों के व्यापारी हैं,
वे भी नहीं सोचते कि इस तरह तो
यह जो जम्बूद्वीप है,
शाल्मल द्वीप में बदल जाएगा,
और यह जो भरत खंड है, अखंड नहीं रहेगा,
खंड-खंड हो जाएगा।
उत्तराखंड हो जाएगा, झारखंड बन जाएगा,
छत्तीस नहीं, बहत्तर खंड हो जाएगा।
बल्कि कहना तो यह चाहिए कि
नौ का पहाड़ा ही पलट जाएगा।
न नौ खंड, न छत्तीस, न बहत्तर,
हज़ार खंड हो जाएगा,
लाख खंड हो जाएगा।
अतल वितल तलातल के दलदल
में धँस जाएगा,
लेकिन कोई बात नहीं!
धँसने दो इस अभागे देश को यहाँ-वहाँ,
जहाँ-जहाँ यह धँस सकता है,
दंगे के व्यापारियों की बला से
जब यह देश नहीं रहेगा,
कितनी ख़राब लगेगी दुनिया जब
उसमें भारत खंड नहीं रहेगा,
जम्बूद्वीप नहीं रहेगा,
हे भगवान!
जे.एन.यू. में जामुन बहुत होते हैं
और हम लोग तो बिना जामुन के
न जे.एन.यू. में रह सकते हैं
और न दुनिया में ही रहना पसंद करेंगे।
लेकिन दंगों के व्यापारी
जम्बूद्वीप नहीं रहेगा तो
करील कुंज में डेरा डाल लेंगे,
देश नहीं रहा तो क्या हुआ,
विदेश चले जाएँगे।
कुछ लोग अपने घाट जाएँगे,
कुछ लोग मर जाएँगे,
लेकिन हम कहाँ जाएँगे?
हम जो न मर रहे हैं और न जी रहे हैं,
सिर्फ़ कविता कर रहे हैं।
यह कविता करने का वक़्त नहीं है दोस्तो!
मार करने का वक़्त है।
ये बदमाश लोग कुछ मान ही नहीं रहे हैं—
न सामाजिक न्याय मान रहे हैं,
न सामाजिक जनवाद की बात मान रहे हैं,
एक मध्ययुगीन सांस्कृतिक तनाव के
चलते
तनाव पैदा कर रहे हैं,
टेंशन पैदा कर रहे हैं,
जो अमरीकी संस्कृति की विरासत है।
ऐसा हमने पढ़ा है,
ये सब बातें मैंने मनगढ़ंत नहीं गढ़ी हैं।
पढ़ा है,
और अब लिख रहा हूँ
कि दंगों के व्यापारी,
मुल्ला के अधिकार की बात उठा रहे हैं,
साहुकारों, सेठों, रजवाड़ों के अधिकार की बात
उठा रहे हैं।
इतिहास को उलट देने का अधिकार
चाहते हैं दंगों के व्यापारी।
लेकिन आज के ज़माने में
इतिहास को उलटना सम्भव नहीं है,
इतिहास भूगोल में समष्टि पा गया है।
लड़ाइयाँ बहुत हैं—
जातीय, क्षेत्रीय, धार्मिक इत्यादि
लेकिन जो साम्राज्यवाद विरोधी लड़ाई
दुनिया भर में चल रही है,
उसका खगोलीकरण हो चुका है।
वह उसके अपने घर में चल रही है,
अमरीका में चल रही है,
क्योंकि अमरीका अब
फ़ादर अब्राहिम लिंकन की लोकतंत्र
की परिभाषा से बहुत दूर चला
गया है।
और इधर साधुर बनिया का जहाज़
लतापत्र हो चुका है,
कन्या कलावती हठधर्मिता कर रही है,
सत्यनारायण व्रत-कथा जारी है।
कन्या कलावती आँख मूँदकर पारायण कर रही है
यह हठधर्मिता है लोगों!
मुझे डर है कि
जामाता सहित साधुर बनिया
जलमग्न हो सकते हैं,
तब विलपती कन्या कलावती के उठने का
कोई संदर्भ नहीं रह जाएगा,
न ही इंडिया कोलम्बिया हो पाएगा।
सपना चकनाचूर हो जाएगा
स्वप्न वासवदत्ता का!
कभी अमेरीका में नॉवेल पायनियर हेमिंग्वे
ने आत्महत्या की थी,
क्यों की थी हेमिंग्वे ने आत्महत्या?
कुछ पता नहीं चला।
अमरीका में सिर्फ़ बाहरी बातों का ही पता चलता है।
अंदर तो स्कूलों में बच्चे मार दिए जाते हैं,
पता नहीं चलता।
हाँ, इतना पता है
कि हेमिंग्वे बीस वर्ष तक
फ़िदेल कास्त्रो के प्रशंसक बने रहे।
अब ऐसा आदमी अमरीका में तनावमुक्त नहीं रह सकता।
और टेंशन तो टेंशन,
ऊपर से अमरीका टेंशन!
तो क्या हेमिंग्वे व्हाइट हाउस का बुर्ज गिरा देते?
हेमिंग्वे ने इंडिसन कैम्प नामक गल्प लिखा।
मैं अर्जुन कैम्प का वासी हूँ,
अर्जुन का एक नाम भारत है,
और भारत का एक नाम है इंडिया।
अर्जुन कैम्प से इंडियन कैम्प तक,
इंडिया से कोलम्बिया तक,
वही आत्महत्या की संस्कृति।
मेरा तो जाना हुआ है दोस्तों,
गोरख पांडेय से हेमिंग्वे तक
सब के पीछे वही आतंक राज,
सब के पीछे वही राजकीय आतंक।
दंगों के व्यापारी
न कोई ईसा मसीह मानते हैं,
और न कोर्ट अबू बेन अधम।
उनके लिए जैसे चिली, वैसे वेनेजुएला,
जैसे अलेंदे, वैसे ह्यूगो शावेज,
वे मुशर्रफ़ और मनमोहन की बातचीत भी करवा सकते हैं,
और होती बात को बीच से दो-फाड़ भी कर सकते हैं।
दंगों के व्यापारी कोई फ़ादर-वादर नहीं मानते,
कोई बापू-साधु नहीं मानते,
इन्हीं लोगों ने अब्राहम लिंकन को भी मारा,
और इन्हीं लोगों ने महात्मा गाँधी को भी।
और सद्दाम हुसैन को किसने मारा?
हमारे देश के लम्पट राजनीतिक
जनता को झाँसा दे रहे हैं कि बग़ावत मत करो!
हिन्दुस्तान सुरक्षा परिषद् का सदस्य बनने वाला है।
जनता कहती है—
भाड़ में जाए सुरक्षा परिषद!
हम अपनी सुरक्षा ख़ुद कर लेंगे।
दंगों के व्यापारी कह रहे हैं,
हम परिषद से सेना बुलाकर तुम्हें कुचल देंगे।
जैसे हमारी सेनाएँ नेपाल रौंद रही हैं,
वैसे उनकी सेनाएँ तुम्हें कुचल देंगी।
नहीं तो हमें सुरक्षा परिषद का सदस्य बनने दो और चुप रहो।
यही एक बात की ग़नीमत है
कि हिन्दुस्तान चुप नहीं रह सकता,
कोई न कोई बोल देता है,
मैं तो कहता हूँ कि हिन्दुस्तान वसंत का दूत बनकर बोलेगा,
बम की भाषा बोलेगा हिन्दुस्तान!
अभी मार्क्सवाद ज़िंदा है,
अभी बम का दर्शन ज़िंदा है,
अभी भगत सिंह ज़िंदा है।
मरने को चे ग्वेरा भी मर गए,
और चंद्रशेखर भी,
लेकिन वास्तव में कोई नहीं मरा है।
सब ज़िंदा हैं,
जब मैं ज़िंदा हूँ,
इस अकाल में।
मुझे क्या कम मारा गया है
इस कलिकाल में।
अनेकों बार मुझे मारा गया है
इस कलिकाल में।
अनेकों बार घोषित किया गया है,
राष्ट्रीय अख़बारों में, पत्रिकाओं में,
कथाओं में, कहानियों में
कि विद्रोही मर गया।
तो क्या सचमुच मर गया!
नहीं, मैं ज़िंदा हूँ,
और गा रहा हूँ,
कि
कहाँ चला गया साधुर बनिया,
कहाँ चली गई कन्या कलावती,
सम्पूर्ण भारत भा लता-पात्रम्।
पर वाह रे अटल चाचा! वाह रे सोनिया चाची!!
शब्द बिखर रहे हैं,
कविताएँ बिखर रही हैं,
क्योंकि विचार बिफर रहे हैं।
हाँ, यह विचारों का बिफरना ही तो है,
कि जब मैं अपनी प्रकृति की बात सोचता हूँ
तो मेरे सामने मेरा इतिहास घूमने लगता है।
मैं फ़ंटास्टिक होने लगता हूँ
और सारा भूगोल,
उस भूगोल का
ग्लोब, मेरी हथेलियों पर
नाचने लगता है।
और मैं महसूसने लगता हूँ
कि मैं ख़ुद में एक प्रोफ़ाउंड
उत्तर आधुनिक पुरुष पुरातन हूँ।
मैं कृष्ण भगवान हूँ।
अंतर सिर्फ़ यह है कि
मेरे हाथों में चक्र की जगह
भूगोल है, उसका ग्लोब है।
मेरे विचार सचमुच में उत्तर आधुनिक हैं।
मैं सोचता हूँ कि इतिहास को
भूगोल के माध्यम से एक क़दम आगे
ले जाऊँ
कि भूगोल की जगह
खगोल लिख दूँ।
लेकिन मेरी दिक़्क़त है कि
जैसे भूगोल को खगोल में बदला जा सकता है,
वैसे ही इंडिया को कोलम्बिया
नहीं शिफ़्ट किया जा सकता।
कोलम्बिया—जो खगोल की धुरी है
और सारा भूगोल उसकी परिधि है
जिसमें हमारा महान देश भी आता है।
महान इसलिए कह रहा हूँ
क्योंकि महान में महानता है।
जैसे खगोल की धुरी कोलम्बिया है,
वैसे इस देश के महान विद्वान लोग
महानता की धुरी इंडिया को मानते हैं।
अब यह विचार मेरे मन-मयूर को
चक्रवात की तरह चला रहा है कि
भगवान, देवताओं!
इंडिया को कोलम्बिया शिफ़्ट करना ठीक रहेगा,
कि स्वयमेव कोलम्बिया को ही
इंडिया में उतार दिया जाए।
यह विचार है
जो बिफर रहा है।
इसमें इतिहास भी है,
और दर्शन भी,
कि आप जब हमारे देश आएँगे
तो हम क्या देंगे,
क्योंकि हमारे पास बिछाने के लिए बोरियाँ भी नहीं हैं
मेरे महबूब अमरीका!
और जब हम आपके यहाँ आएँगे,
तो क्या लेकर आएँगे,
क्योंकि मुझ सुदामा के पास
तंडुल रत्न भी नहीं है कॉमरेड कृष्ण!
इसलिए विचार बिफर रहे हैं
कि जब हमारा महान देश
सुरक्षा परिषद का स्थाई सदस्य
बनेगा, जब उसे वीटो पॉवर
मिलेगी,
तब तक पिट चुका होगा,
लुट चुका होगा,
बिक चुका होगा।
जयचंद और मीर जाफ़र
जब इतिहास नहीं
वर्तमान के ख़तरे बन चुके हैं।
इससे भविष्य अँधकारमय दिखायी पड़ रहा है।
कालांतर में इस देश को
ख़रीद सकता है अमरीका,
नहीं, इटली का एक लंगड़ा व्यापारी
त्रिपोली।
तोपों के दलाल
साम्राज्यवाद के भी दलाल हैं।
वे काल हैं और कुंडली मारकर
शेषनाग की तरह संसद को
अपने फन के साए में लिए बैठे हैं।
मुझे यह अभागा देश
कालिंदी की तरह लगता है
और ये सरकारें,
कालिया नाग की तरह।
विचार बिफर रहे हैं कि
हे फ़ंटास्टिक कृष्ण!
भगवान विद्रोही!
तुम विद्रोही हो,
कोई नहीं तो तुम क्यों नहीं
कूद सकते आँख मूँदकर
कालिया नाग के मुँह में।
विद्रोही की कविता 'औरतें'