मैं जानता हूँ तुम्हारा यह डर
जो कि स्वाभाविक ही है, कि
अगर तुम घर के बाहर पैर निकालोगे
तो कहीं वैराट्य का सामना न हो जाए,
तुम्हें भी कहीं
नदी की भाँति
निर्जन कान्तारों में चलना न पड़ जाए
या तुम्हें कहीं
क्षितिज पर खड़ा करके
कन्धों पर
एटलस की भाँति आकाश न रख दिया जाए।

ऐसी अनन्त सम्भावनाएँ हो सकती हैं
इसलिए मैं समझता हूँ
तुम्हारा यह डर, कि
निरापद नहीं है
घर से बाहर पैर निकालना
क्योंकि व्यक्ति का
इस प्रकार विराट हो जाना
किसको प्रिय लग सकता है?
नदी की भाँति
जंगलों में अनाम भटकना
या आकाश उठाये एटलस बन जाना—
ये दुर्घटनाएँ तो हो सकती हैं
पर वैराट्य कैसे?
निश्चित ही अन्तर तो है ही—
निरे आकाश को देखने
और बन्द खिड़की से सुरक्षित होकर
आकाश को देखने में।
व्यक्ति—
चिनार या पर्वत तो नहीं
जो भीगते हुए
या तपते हुए
आकाश उठाये खड़ा रहे।
नदी होने से अधिक मार्मिक तो
उसका वह चित्र होगा
जो कमरे में टँगा होगा।
मौसम—
केवल फूल ही तो नहीं होता,
वह माथे पर का पसीना भी होता है
और प्रायः फेफड़ों में भी जकड़ उठता है।

इसलिए
व्यक्ति और वैराट्य के बीच
कितनी ज़रूरी होती है
एक खिड़की—
क्योंकि वह सुरक्षा कवच है।

नरेश मेहता की कविता 'घर की ओर'

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नरेश मेहता
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हिन्दी के यशस्वी कवि श्री नरेश मेहता उन शीर्षस्थ लेखकों में हैं जो भारतीयता की अपनी गहरी दृष्टि के लिए जाने जाते हैं। नरेश मेहता ने आधुनिक कविता को नयी व्यंजना के साथ नया आयाम दिया। आर्ष परम्परा और साहित्य को श्रीनरेश मेहता के काव्य में नयी दृष्टि मिली। साथ ही, प्रचलित साहित्यिक रुझानों से एक तरह की दूरी ने उनकी काव्य-शैली और संरचना को विशिष्टता दी।