‘कविता’ जल रही है
शब्दों की चिता पर
वो शब्द जिन्होंने खुद किया था कभी
कविता का सृजन
शब्द जो सभ्याताओं के
घाटों से आये थे
जिनके माथे पर सजा था
संस्कृति का टीका
जिन्होंने ताप लिया सूरज से
रजत रश्मियों की थी निर्मलता
विचार लिए थे चौपालों से
छाँव ली थी मंदिर के बरगद से

जो स्वीकृति थे अतृप्त अनंत
मरुस्थल के मौन के
जिनमें सम्मोहन था प्रियसी
की आँखों-सा
और प्रतिशोध था परम्पराओं का
जो सार्थक थे पूरब के क्षितिज के
जिनमें आवाज़ें थी नदियों के प्रवाह की
जो बैठे थे विवेचनाओं के किनारों पर

जल रहे हैं खुद और जला रहें है कविता
राख हो जाएगी कविता
और अस्थियाँ बन जाएंगे शब्द
तो बहा दिए जाएंगे गंगा में
और अगर रह गया है
कुछ कहना शेष
तो पुनर्निर्माण होगा
शब्दों का और अदम्य जिजीविषा
लिए फिर चलेंगे उसी पथ पर
नहीं तो बन जाएंगे
एक तारा
अद्धभुत, अकल्पनीय, अनन्त।