बोया है एक बीज कविता का
अंतस्तल की ऊसर ज़मीन पर
आँखों से निकलेगा खारा पानी
बहेगी अविरल धारा हृदय पर
और मिलेगी बीज को
अंकुरित होने के लिए
आवश्यक नमी,
नन्हीं-नन्हीं कोपलें निकलेंगी जब
जी उठूँगी मैं,
पनपेगा बिरवा
प्रफुल्लित होऊँगी मैं
सहेजूंगी हृदय के प्रकोष्ठों में
कि बचा सकूँ हर प्रतिकूल परिस्थिति में,
जब बड़ा होगा बिरवा
चीरकर निकलेगा हृदय को
जूझने के लिए आंधियों से,
ऐ मेरे प्रियतम!
तब लौट आना अपने सफ़र से
अपनी डगर पर बढ़ूँगी मैं भी
मिलकर जब ढकेंगी दो हथेलियाँ
नन्हीं कोपलों को
लहलहा उठेगी कविता
और इसकी छाँव में
जी लूँगी मैं
प्रेम अपना!
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