मैंने लिखे
खण्डर बनते क़िले,
युद्ध का यलग़ार,
तलवारों की चमक,
सभ्यताओं के विनाश
के बारे में लिखा,
और रात के सन्नाटे में
सुनाई दी
एक टिटहरी की चीख़
परमाणु बम की विभीषिकाओं
और
जलते तेल के कुओं के बीच,
मैंने लिखी उबासी
एक उनींदे पिल्ले की
जो जगह छूटी
वृद्धाश्रमों की शटर लिखते वक़्त,
उसमें से उग आई
एक नवजात की मुट्ठी
पितृसत्ता को ललकारती हुई
कविता के पहलू में
छुपा रहा
पिता की मौत का भय
आती रही कोलतार की गंध
मेरी हथेली पर रखे
पलाश के फूलों में
प्रेम कविताएँ परोसी मैंने
एक भिक्षु के
आशीर्वाद की तरह
मेरी हर कविता में
उतरता रहा मेरी पीठ से
एक लेखक का चोग़ा
मैंने अपनी नंगी पीठ को काग़ज़ माना
और उस पर मौन लिखा।